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३५२] त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्रः पर्व १. सर्ग १.
महात्रतल्पी वृक्षों वागमें अमृनकी धाराके समान शिक्षामय देशना दी। उसे सुनकर उसने माना कि उसको मोक्ष मिल गया है। फिर वह महामना माची, नाविमोंके समूहमें, उनके पीछे जाकर बैठी। प्रमुनी देशना मुन, उनके चरणकमलों में नमस्कार कर महाराजा भरत खुशी-खुशी अयोध्या नगरी में गए।
(७६८-७) वहाँ अपने सभी स्वजनोंको देखनकी इच्छा रखनेवाने महाराजाले अधिकारियोंने आपलए संबंधियोंका परिचय कराया और लो नहीं पाए उनका स्मरण कराया। फिर अपने भाइयोंको-जो सबमें भी नहीं श्राप थे-त्रुलाने के लिए महाराजाने दूत मेजे। दृताने जाकर उनसे कहा, "यदि तुन्हें रायकी इच्छा हो तो मरतु-नानाकी सेवा करो।
दूतोंकी बातें सुन, उन्होंन सोचविचारकर जवाब दिया, "पितानीने भरतको और हमको सुबको राज्य बाँट दिए हैं। अब भरतकी सेवा करने वह हमें अधिक क्या देगा ? क्या वह मौत थानेपर उसे रोक सकेगा? क्या बद्ददेहको पकड़नेवानी नरा-रानीको दंड दे सकंगा? क्या वह पीड़ा पहुंचानेवाल रोगपी व्यावाँको मार सक्नेगा या बह उत्तरोत्तर बढ्नवाली तृणाचा नाश कर मचेगा? अगर मेवाका इस तरहका फल, देनमें भरत असमर्थ होटोमर्व सामान्य मनुष्यता कौन किनके लिए संत्रा करने लायक है ? उसकं पास बहुन राज्य है तो भी, यदि उसे इतनेने संतोष न हो, और वह अपने बलसं हमारा राज्य लेना चाहता हो तो हम भी उसकेंही पिताके पुत्र हैं। इस लिए इंतो! इन पिताजी कई बगैर तुम्हारे स्वामीक साथ