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६७६ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३,
पहलेके समानही प्रमुके लिए समवसरणकी रचना की। इसमें अशोकवृनके नीचे, सिंहासनपर विराजमान जगत्पतिने मुर, असुर और मनुष्योंकी पर्षदा देशना देना प्रारंभ किया। उसी समय एक ब्राझणकी जोड़ी पाई और तीन नगतके गुरुको प्रदक्षिणा देकर यथायोग्य स्थान पर बैठी।
सम्यक्त्वका माहात्म्य देशनाके अंतमें उस नोड़ीमसे ब्राह्मण खड़ा हुआ और उसने हाथ जोड़कर प्रमुसे पूछा, "हे भगवान् ! यह ऐसा कैसे
प्रमुने नवाब दिया, "यह सम्यक्त्र की महिमा है । वही समी अनयाँको रोकनेकाीरसमी कायाँको सिद्धिकाएक प्रबल कारण है। सम्यक्त्वसे सभी तरहके बैर इसी तरह शांत हो जाते हैं जिस तरह वर्षासे दवाग्नि शांत हो जाती है; सभी व्याधियाँ इस तरह नष्ट हो जाती हैं जिस तरह गरुड़ते स नष्ट हो जाते हैं। दुष्कर्म ऐसे गल जाते हैं जैसे सूर्यसे बरफ गल जाता है; क्षणवारमें मनोवांछित कार्य ऐसे सिद्ध होते हैं जैसे चिंतामणिसे सिद्ध होते हैं। श्रेष्ट हार्थी जैसे पानी के प्रवाहको बाँधता है वैसेही देवश्रायुका बंध होता है; और महापराक्रमी मंत्रकी तरह देवता आकर हाजिर होते हैं। अपर कही हुई बातें तो सन्यक्त्वका एक अल्ल फल है। इसका महाफल तो तीयकर. पद और सिद्धिपद (मोक्षपद) की प्राप्ति है। (८४७-२५७)
प्रमुछा नवाब सुनकर विप्र हर्पित हुआ और हाथ जोड़'कर बोला, "हे भगवान ! यह ऐसाही है। सर्वज्ञकी वाणी अभी अन्यथा नहीं होती"निप्र मौन हो रहा व मुख्य गण.