________________
६७० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ३.
तकही होती है। अच्युत देवलोक तकके देवता गमनागमन करते हैं। (१७५-७८ ) ___"न्योत्तिष्क देवों तक तापम होने हैं। ब्रह्मदेवलोक तक चरक' और परित्राजकों की उत्पत्ति है। सहस्रार देवलोक तक तियंत्रांकी उत्पत्ति है। अच्यून देवलोक तक श्रावक्रांकी उत्पत्ति है। मिण्याइष्टि होते हुए भी जनलिंगी बनकर यथार्थरुपसे समाचारी पालनेवालोंकी उत्पत्ति अंनिम |वयक तक है। पूर्ण चौदह पूर्वधारी मुनियोंकी उत्पत्ति ब्रह्मलोकके सद्धिसिद्धि विमान तक है। सद् बनवाले साधुओंकी और श्रावकोंकी उत्पत्ति नयन्यतासे ( यानी कम से कम ) सौधर्म देवलोकमें है । भुवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी और ईशान देवलोक तक देवताओंके लिए अपने भवनमें बसनेवाली देवियों के साथ विषय संबंधी अंगसेवा है। वे संक्लिष्ट (दुग्यदाया) कर्मवाल और तीन वैगग्यवाल होनेसे मनुष्योंकी तरह काममोगमें लीन रहते हैं, और देवांगनाओं के सभी अंगांसे संबंध रखनेवाली प्रीति प्राप्त करते हैं। उनके बाद दो देवलोकांक देव स्वर्श मात्रसे, दो देवलाकोंके देव रूप देखनेस, दो देवलोकांक देव शब्द सुननसे और श्रानन इत्यादि चार देवलोकोंक देव मनमें कंवल विचार करनेहीसे विषय धारण करनेवाले होते हैं। इस तरह विषयरसका विचारसही पान करनेवाल देवताओंसे अनंत सुख पानेवाले देवताग्रेवयकादिम है कि जिन मन विषयक विचारोंसे सर्वथा रहित है। (७८-७६)
१-अध्ययन के लिए घन करनेवाले।२-सन्यासी॥३-लेनधर्मक अनुसार बताए गए, सदाचाग ।