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- सागरचंद्रका वृत्तांत
गए हैं। इंद्रने जो जो आभूषण भगवानके अंगोंको अलंकृत करनेके लिए पहनाए थे वे खुदही भगवानके अंगोंसे अलंकृत हुए। भक्तिपूर्ण चित्तवाले इंद्रने, प्रफुल्लित पारिजातके पुष्पोंकी मालासे प्रभुकी पूजा की। फिर कृतार्थ हुआ हो वैसे वह जरा पीछे हटकर प्रभुके सामने खड़ा हुआ। उसने आरती करनेके लिए हाथमें आरती ली। जलती हुई कांतिवाली उस आरतीसे इंद्र ऐसा शोभने लगा जैसे प्रकाशमान औषधिवाले शिखरसे महागिरि शोभता है। जिसमें श्रद्धालु देवोंने फूलोंका समूह डाला है ऐसी उस आरतीसे उसने तीन बार प्रभुकी आरती उतारी। फिर भक्तिसे रोमांचित होकर शक्रस्तव द्वारा प्रभुकी वंदना कर इंद्र इस तरह विनती करने लगा; (५७३-६०१)
___"हे जगन्नाथ ! हे त्रैलोक्य-कमल-मार्तंड ! (तीन लोकके प्राणी रूपी कमलोंके लिए सूरजके समान) हे संसाररूपी मरुस्थलमें कल्पवृक्ष ! हे विश्वका उद्धार करनेवाले वांधव ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो ! यह मुहूर्त भी वंदनीय है कि जिसमें धर्मको जन्म देनेवाले, अपुनर्जन्मा ( जिनका फिर कभी जन्म न होगा ऐसे ) और जगजंतुओंके दुःखका नाश करनेवाले ऐंसे, आपका जन्म हुआ है। हे नाथ ! इस समय आपके जन्माभिषेकके जलके पूरसे भीगी हुई और वगैर कोशिशकेही जिसका मल दूर होगया है ऐसी यह रत्नप्रभा पृथ्वी (आपके समान रत्नको जन्म देकर ) यथानाम तथा गुणवाली हुई है । हे प्रभो! वे मनुष्य धन्य हैं जो सदा आपके दर्शन पाएँगे; हम तो कभीकभीही आपके दर्शन पाएँगे। हे स्वामी ! भरतक्षेत्रके मनुष्यों के लिए मोक्षमार्ग बंद हो गया है, उसे आप नवीन मुसाफिर होकर