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१६८ ] त्रिषष्टि शालाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग:.
हुए देवनाओंके कपड़े भीगने लगे। फिर इंद्रने उन चारों बैलोको इस तरह अवश्य कर दिया जैसे जादूगर अपने जाइसे बनाई चीजोंको अवश्य कर देना है। स्नान कराने के बाद बहुत स्नेहशील उस देवपनिने देवदुष्य बन्नसे प्रभुके शरीरको इसतरह (यत्नके साथ) पोला जैसे रनके दर्पणको (आइनेको पांचते हैं। रत्नमयापटपर निर्मल और चाँदीक अलंड अक्षतोंसे (चाँवलासे ) प्रभुके सामने अष्टमंगल (साथियांविशेष ) बनाया । पीछे मानों अपना बहुन अनुराग (लेह) हो उस तरह के उत्तम अंगराग (चटन) से उसने त्रिजगतगुनके अंगपर लेप किया। प्रभुके हुनते हुए मुखपी चंद्रकी चंद्रिकाका भ्रम पैदा करने वाले उन्चल और दिव्य बन्त्रोंसे इंजन प्रमुकी पूजा की और विश्वकी मूर्द्धन्यताके (जगतमें मुख्य होन) चिह्न समान बत्रमाणिक्यका सुंदर मुजुट प्रभुको धारण कराया। फिर उसने प्रभुके कानों में सोने के दो कुंडल पहनाए ऐसे शोमते थे जैसे मॉम्के समय पूर्व और पश्चिम दिशामें आकाशपर मुरल और चाँद शोमने हैं। उसने स्वामी गन्में दिव्य मोतियोंकी बड़ी माला पहनाई, बट्ट लक्ष्मीके भूलकी डोगसी मालूम होती थी। बालइन्तिकी इंकूलों में से नोन कंगा (चूड़ियाँ) पहनाते हैं वैसेही उसने प्रमुकी भुताओंमें दो भुजबंध पहनाए । उसने वृक्षकी शान्ता अंतिन भागके गुच्छ समान, गोलाकार और बड़े मोतियों मणिमय कंत्रण प्रमुळे मणिबंधों (कलाइयां पहनाए । वर्षवर पर्वतचे नितंत्रमाग (दाल) पर रहे हुए सुवर्णकुल बिलासको धारण करनेवाला कोरा इंजन प्रमुकी कमरमें पहनाया । उसने मुझे दोनों पैरों में माणिक्यमय लंगर पहनाए, वे ऐसे मालूम होते थे मानों देवों और अनुरोंके वेन उनमें समा