________________
.
.. .. : . साग़रचंद्रका वृत्तांत ... ..: [ १६७
..... दूसरे. घासठ इंद्रोने भी स्नान, विलेपनसे प्रभुकी इसी तरह पूजा की.जैसे बड़े भाईके पीछे छोटे भाई करते हैं।
(५७२) फिर सौधर्मेद्रकी तरह ईशानेंद्रने भी अपने पाँच रूप किए। उनमें के एक रूपने भगवानको गोदमें लिया, एक रूपने कपूर जैसा छत्र धारण किया। छत्रके मोतीकी झालरें लग रही थीं,वे ऐसी मालूम होती थीं मानों ईंद्र दिशाओंको नाचनेका आदेश कर रहा है। दो रूपोंसे वह प्रभुके दोनों तरफ चवर डुलाने लगा। उसके हिलते हुए हाथ ऐसे मालूम होते थे मानों वे हर्षसे नाच रहे हैं। और एक रूपसे वह इस तरह प्रभुके आगे खड़ा रहा मानों
वह प्रभुके दृष्टिपातसे अपनेको पवित्र बना रहा है । (५७३-५७६) __.. फिर सौधर्मकल्पके इंद्रने जगत्पतिकी चारों दिशाओं में स्फटिकमणिके चार ऊँचे पूरे वृषभ(बैल)बनाए। ऊँचे सींगोंसे शोभते वे चारों वृषभ चारों दिशाओं में रहें हुए चंद्रकांत रत्नके चार क्रीड़ापर्वतोंके समान मालूम होने लगे । चारों बैलोंके आठ सींगोंसे
आकाशसे इस तरह जलधाराएँ निकलने लगीं मानों वे पृथ्वी फोड़कर निकली है । मूलमें अलग अलग मगर अंतमें मिली हुई वे जलधाराएँ आकाशमें हुए नंदी-संगमका भ्रम कराने लगीं। सुरोंअसुरोंकी नारियाँ कौतुकसे उनजलधाराओंको देखने लगीं। वे धाराएँप्रभुके मस्तकपर इसतरह पड़ने लगी जिस तरह नदियाँ समुद्र में पड़ती है। जलयंत्रों (नलों) की तरह सींगोंसे निकलती हुई जलधाराओंसे शकेंद्रने आदि-तीर्थकरको स्नान कराया। भक्तिसे जैसे हृदय आर्द्र हो जाता है (भीग जाता है) वैसेही मस्तकपररागिरफर उछलतीहुई स्नानजलकी बूंदोंसे दूर खड़े