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६८६] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २ सर्ग ४.
हैं। फिर सिंहामनगर बैठकर उसने अपने शरीरपर जिनने श्राभूपग थे वे सभी, उनार उतारकर चक्ररत्नके उत्पन्न होने के समाचार देनेवालेको देहिए। फिर वह पवित्र जलसे मंगलस्नान कर, दिव्य वस्त्राभूषण पहन,पैदलही चक्ररत्नकी पूजा करने को रवाना हुआ। कारण,
"पादचारेणोपस्थानं पूजातोप्यतिरिच्यते ।"
[ पैदल चलकर सामने जाना पूजासे भी अधिक है। किंकरोंकी तरह दौड़ते और गिरते-पड़ते रुकते राजा लोग सन्मानसे उसके पीछे चले। कई सेवक पूजाकी सामग्री लेकर, चुलाए नहीं गए थे तो भी, उनके पीछे पीछे चले। कारण,"स्त्राधिकारप्रमादित्वं भीतये ह्यधिकारिणाम् ।"
[ अधिकारियोंको अपने अधिकारका प्रमाद भयभीत बनाता है।] देवसे जैसे विमान चमकता है वैसेही दिञ्च चक्रसे चमकत हुए शवागार में सगर पहुंचा। राजाने गगनरत्नके (सूर्यके) समान चकरत्नको देखतेही, पाँच अंगासहित पृथ्वीका स्पर्श कर, प्रणाम किया। हाथमें रोमहन्त (मोरपंखकी पीछी) लेकर, महावत जैसे सोकर उठे हुए हाथीका मार्जन करता है वैसेही, सगरने चक्रका मार्जन किया; और जलके कुंभ भरकर लानेवाले पुरुषोंके पाससे जल-ले लेकर. देवप्रतिमाकी तरह, चक्ररत्नको स्नान कराया। उसपर, उसे अंगीकार करने के लिए लगाए हुए अपने हाथकी शोभाके जैसा, चंदनका तिलक किया। विचित्र फूलों की मालासे, जयलक्ष्मीके पुष्पगृह जैसी, चक्ररत्न. की पूजा की और फिर गंध और वासक्षेप, प्रतिष्टाके समय देव.