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- . . . ... : म ऋषभनाथका वृत्तांत
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डूबते हुए मनुष्योंको जहाज मिलता है,प्यासे आदमियोंकोप्याऊ मिलती है, सरदीसे व्याकुल श्रादमियोंको श्राग मिलती है, धूपसे घबराए हुए मनुष्योंको पेड़की छाया मिलती है, अंधकारमें वे हुओंको दीपक मिलता है, दरिद्रीको धन मिलता है, विषपीड़ितोंको अमृत मिलता है, रोगियोंको दवा मिलती है, दुष्ट शत्रुओंसे घबराए हुए लोगोंको किलेका आश्रय मिलता है, वैसेही दुनियासे डरे हुए लोगोंको आप मिले हैं। इसलिए हे दयानिधि ! रक्षा कीजिए! रक्षा कीजिए ! पिता,भाई,भतीजे और दूसरेसगे-संबंधी संसारभ्रमणके हेतुरूप होनेसे अहितकारियोंके समान हैं, इस. लिए इनकी क्या जरूरत है ? हे जगतशरण्य ! हे संसारसमुद्रसे तारनेवाले ! मैंने तो आपका सहारा लिया है, इसलिए मुझपर प्रसन्न हूजिए और मुझे दीक्षा दीजिए।" (६४३-६५०)
इस तरह निवेदन कर ऋषभसेनने भरतके अन्य पाँचसौ पुत्रों और सातसौ पौत्रोंके साथ व्रत ग्रहण किया(दीक्षा ली)। सुरअसुरोंके द्वारा कीगई प्रभुके केवलज्ञानकी महिमा देखकर भरत के पुत्र मरीचिने भी व्रत ग्रहण किया। भरतके आज्ञा देनेसे ब्राझीने भी दीक्षा लेली। कारण---
"गुरूपदेशः साक्ष्येव प्रायेण लघुकर्मणाम् ।" . - [लघु कर्मवाले जीवोंके लिए गुरुका उपदेश प्राय: साक्षी मात्रही होता है। ] ( ६५१-६५३) .
पाहुवलीके मुक्त करनेसे सुंदरी भी दीक्षा लेना चाहती थी, परंतु भरतने मना किया, इसलिए वह प्रथम श्राषिका हुई। भरतने भी प्रभुके निकट श्रावकपन स्वीकार किया। कारण, भोगंकर्म भोगे विना कभी भी व्रत ( चारित्र ) की प्राप्ति नहीं