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. चौथा भव-धनसेठ
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लगता था । विधफलका तिरस्कार करनेवाले होठोंसे और नेत्ररूपी कमलकी नालकी लीलाको ग्रहण करनेवाली नासिकासे वह बहुतद्दी सुंदर दिखाई देती थी। पूर्णिमाके आधे किए हुए चंद्रमाकी सारी लक्ष्मीका हरण करनेवाले उसके स्निग्ध और • सुंदर ललाटसे वह मनको मोह लेती थी। उसके कान कामदेवके भूलेकी लीलाको हरनेवाले थे। पुष्पवाणके धनुपकी शोभाको हरनेवाली उसकी भ्रकुटी थी। मुखरूपी कमलके पीछे फिरनेवाले भ्रमरसमूहकी तरह और स्निन्न काजलके समान उसके केश थे । सारे शरीरमें धारण किए हुए रत्न-जटित
आभूषणोंकी रचनासे वह चलती-फिरती कामलतासी मालूम होती थी; और मनोहर मुखकमलवाली हजारों अप्सराओंसे घिरी हुई वह अनेक नदियोंसे वेष्टित गंगाके समान जान पढ़ती थी। (४६८-५१०)
ललितांगदेवको अपने पास आते देख, उसने स्नेह-युक्तिसे खड़े होकर उसका सत्कार किया। वह श्रीप्रभ विमानका स्वामी स्वयंप्रभाके साथ जाकर पलंगपर बैठा। वे इस तरह शोभने लगे जैसे एक प्रालवाल (थाले) में वृक्ष और लता (पेड़ और वेल) शोभते हैं। एकही वेड़ीसे बँधे हुए (दो आदमी एकत्रित रहते है वैसे.) निविड रागसे (बहुत प्रेमसे ) बँधे हुए उनके चित्त एक दूसरे में लीन हो गए। जिसके प्रेमकी सुगन्ध अविच्छिन्न है (कभी मिटती नहीं है। ऐसे श्रीप्रभ विमानके प्रभुने देवी स्वयंप्रभाके साथ क्रीटा करते हुए, बहुतसा काल बिताया जो एक कलाके समान मालूम हुआ। फिर जैसे वृक्षसे पत्ता गिर १. कला-समयका प्रमाण जो १ मिनिट ३६ सेकंडफे बराबर होता है।
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