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३] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १.
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फिर भक्तिभरे मनवाले उस ललितांगदेवने वहाँसे उठकर चैत्यमें जा शास्वती अहप्रतिमाकी पूजा की और तीन ग्राम (समक) के स्वरोंसे मधुर और मंगलमय गायनोंके साथ विविध स्तोत्रोंसे जिनेश्वरकी स्तुति की; ज्ञानके लिए दीपकके समान ग्रंथ पढ़े और मंडपके खंभेमें रखी हुई अरिहंतकी अस्थिकी अर्चना-पूजा की। (४६६-४६७)
फिर आतपत्र (छत्र ) धारण करनेसे पूर्णिमाके चंद्रकी तरह प्रकाशमान होकर वह क्रीडाभुवनमें गया। अपनी प्रमासे बिजलीकी प्रभाको भी ललित करनेवाली स्वयंप्रभा नामकी देवीको उसने वहाँ देखा। उसके नेत्र, मुख और चरण बहुत कोमल थे, उनसे वह ऐसी मालूम होती थी मानों वह लावण्यसिंधु (सुंदरताके समुद्र ) में कमलवाटिका (बाड़ी) है। अनुक्रमसे स्थूल और गोल जाँघोंसे वह ऐसी जान पड़ती थी मानों कामदेवने अपना माया वहाँ रखा है। स्वच्छ वबॉसे टके हुए नितंबासे वह ऐसे शोमती थी जैसे राजहंसोंसे व्याप्त किनारोंसे नदी शोमती है। पुष्ट और उन्नतस्तनोंका भार उठानेसे कृश बना हुआ उदर (उदर और कमर ) बचके मध्यभागके समान मालूम होता था, जिसने उसकी मनोहरताको बढ़ा दिया था। उसका तीन रेखाओंवाला और मधुर स्वर बोलनेपाला कंठ कामदेवके विजयकी घोषणा करनेवाले शतके जैसा
१. वन ऊपरसे मजबूत, मोटा और एक तरफसे आगे बढ़ा हुआ और
फिर क्रमश: चूड़ी उतार होता है। बीचका माग पतला होता है। फिर हायमें पकड़नेका माग थोड़ा मोटा होता है। . .