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..... ... चौथा भव-धनसेठ... . . .: [६१
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. ."स्वर्णकमलकी खानके समान ये बावड़ियाँ हैं। .
... "रत्न और स्वर्ण के शिखरवाले ये क्रीड़ा-पर्वत हैं। .. "आनंद देनेवाली और निर्मल जलसे भरी हुई ये क्रीड़ा. नदियाँ हैं।........ __.. "नित्य फूल और फल देवनाले ये क्रीड़ा-उद्यान हैं।
"और अपनी कांतिसे दिशाओंके मुखको प्रकाशित करनेवाला सूर्यमंडलके समान स्वर्ण और माणिक्यसे बना हुआ यह आपका सभामंडप है। .
.." ये वारांगनाएँ (वेश्याएं चमर. पंखा और दर्पण लिए खड़ो है। ये आपकी सेवा करने मेंही महामहोत्सव मानती हैं।
"और चार तरहके वाद्योंमें चतुर यह गंधर्ववर्ग आपके सामने संगीत करनेको तैयार खड़ा है।" (४७३-४८६) . प्रतिहारकी बातें सुनकर ललितांगदेवने उपयोग दिया। और उसको अवधिज्ञानसे अपने पूर्वभवकी बातें इसी तरह याद आने लगी जैसे कलकी बातें याद आती हैं। . (४६०) .. ' "मैं पूर्व जन्ममें विद्याधरोंका स्वामी था। मुझे धर्ममित्र स्वयंयुद्ध मंत्रीने जैनेन्द्रधर्मका उपदेश दिया था, उससे मैंने दीक्षा लेकर अनशन किया था। उसीका यह फल मुझे मिला है। अहो ! धर्मका वैभव अचिंत्य है।" .. (४६१-४६२).
इस तरह पूर्वजन्मका स्मरण कर तत्कालही वह वहाँसे उठा, छड़ीदारके हाथपर हाथ रखकर चला और जाकर उसने सिंहासनको सुशोभित किया। चारों तरफसे जयध्वनि उठी। देवताओंने उसका अभिषेक किया। चमर दुरने लगे और गंधर्व गधुर और गंगलगीत गाने लगे। (१९४-१६५)