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३३४ ] त्रिषष्टि शलाका पुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४.
लाकर सामने रखे हुए रत्नों और सोनेकी खानके महान सारको राजा अंगीकार करते थे। गाँव गाँवमें, उत्कंठित वधुके समान, गाँवोंके वृद्धपुरुप उपायन (भेटें) लाते थे, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर चक्री उनको अनुग्रहीत करते थे। वे खेतोंमें घुसनेपाली गायोंकी तरह चारों तरफ गाँवों में फैले हुए सैनिकोंको अपने बानारूपी उपदंडसे रोक रखते थे। वे बंदरोंकी तरह वृक्षोंपर चढ़कर अपनेको श्रानंद सहित देखनेवाले गाँवोंके वालकोंको पिताकी तरह प्यारसे देखते थे। धन-धान्यसे पूर्ण और जीवनसे निरूपद्रवी गाँवोंकी सम्पत्तिको अपनी नीतिरूपी लताके फलकी तरह देखते थे। वे सरिताओंको पंकिल(कीचड़वाली ) करते थे, सरोवरोंको सुखाते थे और वापिकाओं तथा कृाको पाताल-विवर (हिंद्र) की तरह खाली करते थे। इस तरह, अविनयी शत्रुको दंड देनेवाले महाराज, मलयाचलके पवनकी तरह लोगोंको मुख देते हुए धीरे धीरे चलकर अयोध्याके पास पहुंचे । महारानाने अयोध्याके पासकी भूमिमें स्कंधवार (पढ़ाव ) डलवाया; वह मानों अयोध्याका अतिथिरूप सहोदर (सगा भाई) हो ऐसा नानपड़ता था। फिर राजशिरोमण भरतने राजधानीका मनमें ध्यान कर निरूपद्रवकी प्रतीति (विश्वास) करानेवालाअट्टम तप किया। अष्टममक्तके अंतमें पीपयशालासे बाहर निकल चक्रवर्तीने, दसरंराजाओं के साथ दिव्य भोजन से पारणा किया । (५६७-६१०) .. उघर अयोध्या, जगह जगह पर दिगतसे श्राइ हुई लक्ष्मी के लिए मूलनेके मूलही ऐसे, ऊँचे ऊँचे तोरण बाँधे जाने लगे। भगवानके जन्मके समय देवता से सुगंधित जलकी वर्षा करते