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भरत-बाहुवलीका वृत्तांत
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मालूम हुई जैसी तत्काल पर्वतपर बिजली गिरनेसे होती हैं। लीलासे पदन्यास करते ( कदम रखते) और बुडलको (अपने आसपास की जमीनको ) कंपित करते दोनों आमनेसामने चलने लगे; उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो वे धातकी खंडसे आए हुए, दोनों तरफ जिनके सूरज और चाँद हों ऐसे, छोटे मेरुपर्वत हैं। बलवान हाथी मदमें आकर जैसे अपने दाँत आमने-सामने टकराते हैं ऐसेही वे अपने हाथ आपसमें टकराने लगे। क्षणमें एक साथ होते और क्षणमें अलग होते वे दोनों वीर ऐसे मालूम होते थे, मानो महान पवनके द्वारा प्रेरित दो बड़े पेड़ हों। दुर्दिनमें उन्मत्त हुए समुद्रके पानीको तरह वे क्षणमें उछलते व क्षणमें नीचे गिरते थे। मानो स्नेहसे भेटते हों ऐसे क्रोधसे दौड़कर दोनों महाभुज एक एक अंगसे एक दूसरेको दवाते और आलिंगन करते थे और कर्मके वशसे जीवोंकी तरह, युद्ध-विज्ञानके वश वे कभी नीचे और कभी ऊँचे जाते थे। जल में मछलीकी तरह वेगसे वार बार बदलते रहनेसे उनको देखनेवाले लोग यह नहीं जान सकते थे कि कौन ऊपर है और कौन नीचे है। बड़े सर्पकी तरह एक दूसरेके लिए बंधनरूप होते थे और चपल बंदरोंकी तरह तत्कालही अलग हो जाते थे। चार बार पृथ्वीपर लोटनेसे दोनों धूलिधूसर हो गए थे, इससे ऐसे जान पड़ते थे, मानो धूलिमदवाले हाथी हों। चलते हुए पर्वतके समान उनका भार सहन करनेमें असमर्थ होकर पृथ्वी, उनके पदाघातके बहाने मानो चिल्ला रही हो, ऐसी मालूम होती थी। अंतमें क्रोधमें आए हुए और महान पराक्रम
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