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१६४ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २.
प्रभुकी स्तुति कर रहे हैं। देवगण उन भरे कलशोंसे फिरसे प्रभुका अभिषेक करते थे। यक्ष जैसे चक्रवर्तीके निधान-कलशको (खजानेके कलशको ) भरते हैं वैसेही प्रभुको स्नान करानेसे खाली हुए इंद्रके कलशाको देवता जलसे भर देते थे। यार यार भरते और खाली होते कलश चलते हुए रहँटकी घटिका (घड़िया या घड़े) के समान मालूम होते थे। इस तरह अच्युतेंद्रने करोड़ों कलशोंसे प्रभुको स्नान कराया और अपने आत्माको पवित्र क्रिया। यह भी एक अचरज है ! फिर आरण और अच्युत देवलोकके स्वामी अच्युतेंद्रने दिव्य गंधकापायी (सुगंधित गेरुए ) वस्त्रसे प्रभुका शरीर पोंछा; उसके साथही अपने
आत्माको भी पोंछा (पापमलरहित किया। प्रातः और संध्याके प्रकाशकी रेखा जैसे सूर्यमंडलका स्पर्श करनेसे शोभती है वैसेही वह गंधकापायी वन प्रभुके शरीरको स्पर्श करनेसे शोभता था । पोछा हुआ भगवानका शरीर, स्वर्णसारके सर्वस्वके जैसा, स्वर्ण-गिरिके एक भागसे बनाया हो वैसा शोभता था।
(५२६-५४१) फिर भाभियोगिक देवोंने गोशीपचंदनके रसका कर्दम (लेप) सुंदर और विचित्र रकाबियोंमें भरकर अच्युतेंद्रके पास रखा। इंद्रने भगवानके शरीरपर इस तरह लेप करना प्रारंभ किया जिस तरह चाँद अपनी चाँदनीसे मेरुपर्वतके शिखरपर लेप करता है। उस समय कई देवता दुपट्टे पहन, तेज धूपवाली धूपदानियाँ हाथोंमें ले, प्रभुके चारों तरफ खड़े हुए। कई जो उनमें धूप डालते थे, ऐसे मालूम होते थे मानों ये स्निग्ध धूएँकी रेखाओंसे मेकपर्वतकी दूसरी श्यामवर्णकी चूलिका (घोटी)