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सागरचंद्रका वृत्तांत
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(गाल).पर कपूरकी पत्रवल्ली (पत्तोंकी बेलों) के स मनोहर होठोंपर स्मित-हास्यकी कांतिके कलाप ( समूह ) जैसा, कंठभागमें मोतियोंकी माला जैसा, कंधोंपर गोशीर्षके चंदनके तिलक जैसा और बाहु, हृदय और पीठपर विशाल (बड़े) वस्त्र जैसा मालूम होता था। (५१५-५२५) . जैसे चातक स्वातिका जल ग्रहण करते हैं वैसेही कई देवता प्रभुके स्नात्र (स्नान) के उस जलको, पृथ्वीपर पड़तेही, श्रद्धासे ग्रहण करने लगे; कई देवता, मारवाड़के लोगोंकी तरह यह सोचकर कि ऐसा जल हमें फिर कहाँसे मिलेगा, इस जलको अपने मस्तकपर डालने लगे; और कई देवता, गरमीके मोसमसे घबराए हुए हाथियोंकी तरह, बड़े शौकसे उस जलसे अपना शरीर भिगोने लगे। मेरुपर्वतके शिखरोंपर वेगसे फैलता हुआ वह जल चारों तरफ हजारों नदियोंकी कल्पना कराता था और पांडुक, सोमनस, नंदन तथा भद्रशाल उद्यानोंमें फैलता हुआ वह जल कुल्या (नाले) के समान मालूम होता था। स्नान करातेकराते कुभोंके मुख नीचे हो गए । वे ऐसे मालूम होते थे, मानों स्नान करानेकी जलरूपी संपत्ति कम हो जानेसे वे लजित हो रहे हैं। उस समय इंद्रकी आज्ञाके अनुसार चलनेवाले आभियोगिक देव, खाली कुंभोंको दूसरे भरे हुए कुंभोंके जलसे भरते थे। एक हायसे दूसरे हाथमें-ऐसे अनेक हाथोंमें-जाते हुए वे कुंभ धनवानोंके बालकों जैसे मालूम होते थे। नाभिराजाके पुत्रके समीप रखे हुए कलशोंकी कतार आरोपित स्वर्णकमलोंकी मालाके समान सुशोभित होती थी। खाली कुंभोंमें पानी डालनेसे जो भाषाज होती थी वह ऐसी मालूम होती थी मानों कुंभ