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६२८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग३.
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हुआ हो ऐसे, सौधर्म देवलोकके इंद्रका सिंहासन कॉपा । जलाशयके जलकी गहराई जानने के लिए जैसे मनुष्य पानी में (नाएके चिलवाली) रम्सी डालता है वैसेही सौधर्मद्रने सिंहासन फौंपनेका कारण जानने के लिए, अवविज्ञानका उपयोग किया। दीपकके प्रकाशसे जैसे चीजें दिखती है वैसेही, सौधर्मेद्रको अवधिज्ञानमे मालूम हुया कि भगवानको केवलज्ञान हुश्रा है। वह तत्कालही रत्नसिंहासन और रत्नकी पटुकाएँ छोड़ फर खड़ा हुया । कारण
....'बलवत् स्वाभ्यबन्नाभयं सताम् ।" [सलनोंके लिए स्वामीकी अवज्ञाका भय बलवान होता है। गीतार्थ गुरुका शिष्य जैसे गुरुकी बनाई हुई अवग्रह (अनुकूल ) भूमिपर कदम रखना है सही, उसने अरिहंतकी दिशाकी नरफ सात पाठ कदम रखें व अपने बाएँ घुटनेको कुछ मुकाकर, दाहिना घुटना, दोनों हाथ और मस्तकको पृथ्वीसे छया कर, प्रमुको नमस्कार किया। फिर खड़े हो, पीछे फिर, उसने सिंहासनको इस तरह अलंकन क्रिया निस तरह केसरी सिंह पर्वतके शिखरको अलकन करता है। पश्चात तत्कालहा समी देवताओंको बुलाकर, बड़ी मुद्धिकं साथ भक्तिसहित वह प्रमुके पास आया। दूसरे समी ईट भी, श्रासनकपसे स्वामीको केवलज्ञान हुआ है, यह बात जानकर, अहपूर्विकासे प्रभुके पास थापा (२४५-३५४)
१- परले जाऊँ, में पहले नाऊँ इस सर्दा से।