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२५५ ] त्रिषष्ट्रि शलाका पुरुप चरित्रः पर्व १. सर्ग ३.
:: मध्यमें ज्योतिष्यति देवाने सोनेका दूसरा गढ़ बनाया। वह उनके अंगकी पिंडरूप बनीहुई ज्योतिसा मालूम होता था। उस गढ़पर रत्नोंके कंगूरे बनाए गए थे, वे ऐसे मालूम होते थे मानों देवताओं और असुरॉकी नारियोंके लिए मुँह देखनको रत्नमय आइने रखें हैं। भुवनपतिने बाहरी भागमें चाँदीका 'गढ़ बनाया था, वह ऐसा जान पड़ता था मानों भक्तिसे वताव्य पर्वत मंडलरूप (गोल) हो गया है । उस गढ़पर सोनेके विशाल कंगूरे बनाए गए थे, वे देवताओंकी वावड़ियोंके जलमें मोनेके कसलसे मालूम होते थे। वह तीन गढ़वाली जमीन, भुवनपति, ज्योतिष्पति और विमानपति कीलक्ष्मी जैसे एक एक गोलाकार कुंडलसे शोभती है, वैसे सुशोभित हुई। पताकाओं के समूहवाले माणिकमय तोरण ऐसे मालूम हो रहे थे, मानों वे अपनी किरणांसे दूसरी पताकाएँ बना रहे हैं। हरेक गढ़में चार चार दरवाजे, वे चतुर्विध धर्मके लिए क्रीड़ा करनेके झरोखोसे मालूम होते थे। हरेक दरवाजेपर व्यंतर देवताओं द्वारा रखी हुई धूपदानियाँ, इंद्रनीलमणिके स्तंभोंके समान, धुएँकी रेखाएँ छोड़ रही थीं। (४२१-४४२)
- उस समवसरणके हरेक दरवाजेपर गड़की तरह, चार रत्तों और अंदर सोनेके कमलोंवाली वावड़ियाँ बनाई गई थीं। दूसरे गढ़के ईशान कोने में प्रमुक्के विश्राम करनेके लिए एकदेवछंद (वेदिकाके आकारका आसनविशेष) बनाया गया था। अंदर प्रथम गढ़के पूर्व द्वारमें दोनों तरफ, सोनेके समान रंगवाले, दो वैमानिक देवता, द्वारपाल होकर खड़े थे।दक्षिण द्वार- . में दोनों तरफ, मानों एक दूसरेके प्रतिवित्र हों ऐसे उज्ज्वल,