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चौथा भव-धनसेठ
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आया और उसे धीरज धरानेके लिए कहने लगा, "हे महासत्त्व ! (हे महागुणी, हे महाधीर, ) केवल स्त्रीके लिए आप इतने क्यों घबरा रहे हैं ? धीर पुरुप मौतके समय भी इतने नहीं घबराते हैं ।" (५२२-५२३)
ललितांगने कहा, "हे बंधु ! तुम यह क्या कह रहे हो ? प्राणोंका विरह सहन हो सकता है; परंतु कांताका विरह नहीं सहा जा सकता। कहा है कि
"एकैव ननु संसारे सारं सारंगलोचना । या विना नूनमीप्योप्यसाराः सर्वसंपदः ॥"
इस संसारमें एक सारंगलोचना (हिरणके समान आँखों. वाली स्त्री) ही सार है। उसके विना ये सारी संपत्ति भी असार है। (५२४-५२५)
उसकी ऐसी दुखभरी बातें सुनकर ईशानंद्रका वह सामानिक देव भी दुखी हुआ। फिर अवधिज्ञानका उपयोग कर उसने कहा, "हे महानुभाव ! आप दुःख न कीजिए। मैंने ज्ञानसे जाना है कि आपकी होनेवाली प्रिया कहाँ है ? इसलिए स्वस्थ होकर सुनिए । (५२६-५२७)
"पृथ्वीपर धातकीखंडके पूर्व विदेह क्षेत्रमें नंदी नामका गाँव है । उसमें एक दरिद्र गृहस्थ रहता है । नागिल उसका नाम है। वह पेट भरनेके लिए भूतकी तरह सदा भ्रमता है, तो भी पेट नहीं भरता; भूखाही सोता है और भूखाही उठता है । दरिद्री को भूखकी तरह उसके मंदभाग्य-शिरोमणि नागश्री नामकी त्री है। खुजलीम फुसियोंकी तरह, उसके एक एक करके यह लड़.
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