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२६० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३.
पशुओं) से भरे हुए वनमें रहता है । अमृतरसके समान दिव्यांगनाओंके गायन सुननेवाले उसके कानोंमें आज सुईके समान चुभनेवाली सोंकी फूत्कार सुनाई देती है । कहाँ उसकी पूर्व स्थिति और कहाँ वर्तमान स्थिति ? हाय ! मेरा पुत्र कितना दुःख सह रहा है ! जो कमलके समान कोमल था वह वर्षाके जलका उपद्रव सहन करता है ! हेमंत ऋतुमें अरण्यकी(जंगली) मालतीकी वेलकी तरह हिमपातके (वरफ गिरनेके ) क्लेश लाचार होकर सहता है और गरमीके मोसममें वनवासी हाथीकी तरह सूरजकी अति दारुण ( बहुत तेज धूपसे ) किरणोंसे अधिक कष्ट सहन करता है। इस तरह मेरा पुत्र वनवासी बन, आश्रयहीन साधारण मनुष्यकी तरह अकेला फिरता है और दुःख उठाता है। ऐसे दुःखसे घबराए हुए पुत्रको, मैं हर समय अपनी आँखोंके सामने हो वैसे, देखती हूँ। और सदा ये बातें कह कहकर तुमे भी दुखी बनाती हूँ। (४८८-५०४) . इस तरह घबराई हुई मरुदेवी माताको देख, भरत राजा हाथ जोड़ अमृतके समान वाणीमें बोला, "हे देवी ! धीरजके पर्वत समान, वनके साररूप और महासत्व (बहुत बड़ी ताकत वाले) मनुष्योंके शिरोमणि मेरे पिताकी माता होकर आप इस तरह दुःख क्यों करती हैं ? इस समय पिताजी संसार-समुद्रको तैरनेके लिए प्रयत्न कर रहे हैं। ऐसे समयमें उन्होंने हमारा, हमें गलेमें बँधी हुई शिलाके समान समझ कर, त्याग किया है। वनमें विहार करनेवाले उनके सामने. हिंसक पशु भी पत्थरकी मूर्तिके समान हो जाते हैं वे उनको कोई भी तकलीफ नहीं पहुंचा सकते । भूख, प्यास और सरदी-गरमी तो पिताजी