________________
भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
[२५६
मरुदेवीको केवलज्ञान और मोक्षकी प्राप्ति
उधर अयोध्या नगरीमें विनयी भरत चक्रवर्ती सवेरेही मरुदेवी माताको नमस्कार करने गया। अपने पुत्र के विरहमें रात-दिन रोते रहनेसे उनकी आँखों में नीली (आँखोंका एक रोग) रोग हो गया था, इससे उनकी आँखोंकी ज्योति जाती रही थी,-वे देख नहीं सकती थीं, इसीलिए "यह आपका बड़ा पोता आपके चरणकमलोंमें नमस्कार करता है। कहकर भरतने नमस्कार किया। स्वामिनी मरुदेवीने भरतको असीस दी। फिर उनके हृदयमें शोक समाता न हो इस तरह उन्होंने इस तरह बोलना आरंभ किया, "हे पौत्र भरत !मेरा बेटा ऋषभदेव, मुझे, तुझे, पृथ्वीको, प्रजाको और लक्ष्मीको तिनकेकी तरह छोड़कर अकेला चला गया, फिर भी इस मरुदेवीको मौत नहीं आई। मेरे पुत्रके मस्तकपर चाँदकी चाँदनीके जैसा छत्र रहता था, वह (सुख) कहाँ ? और अब छत्ररहित होनेसे सारे अंगको संताप पहुँचानेवाले सूर्यकी धूप उसको लगती होगी, वह (दुःख) कहाँ ? पहले वह सुंदर चालवाले हाथी वगैरा वाहनों पर सवार होकर फिरता था और अब मुसाफिरकी तरह पैदल चलता है। पहले मेरे पुत्रपर वारांगनाएँ चँवर डुलाती थीं और अब वह डांस, मच्छर आदिकी पीड़ा सहन करता है। पहले वह देवताओंके लाए हुए दिव्य आहारका भोजन करता था और आज अभोजनके समान भिक्षा-भोजन करता है । पहले वह महान ऋद्धिवाला, रत्नोंके सिंहासनपर बैठता था और आज गेंडेकी तरह आसन-रहित रहता है। पहले वह नगररक्षकों और शरीररक्षकोंसे रक्षित नगरमें रहता था और अब सिंह आदि श्वापदों (हिंसक