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२५८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३
इस तरह स्तुति करने लगा, हे स्वामी ! कहाँ श्राप गुणोंके पर्वत
और कहाँ मैं बुद्धिका दरिद्री। फिर भी भक्तिने मुझे अत्यंत वाचाल बना दिया है, इसलिए मैं आपकी स्तुति करता हूँ। हे जगत्पति ! जैसे रत्नोंसे रत्नाकर शोभता है वैसेही श्राप अनंत ज्ञान-दर्शन-वीर्यके आनंदसे शोभते हैं। हे देव !इस भरतक्षेत्रमें बहुत समयसे धर्म नष्ट हो गया है, उस धर्मरूपी वृक्षको पुनः उत्पन्न करनेके लिए आप वीजके समान हैं। हे प्रभो !आप के महात्म्यकी कोई अवधि (सीमा) नहीं है; कारण अपने स्थानमें रहे हुए अनुत्तर विमानके देवताओंके संदेहोंको यहाँ बैठे हुए भी आप जानते हैं और मिटाते हैं । महान ऋद्धिवाले
और कांतिसे प्रकाशमान इन सभी देवताओंको स्वगों में रहने__ का जो सौभाग्य मिला है वह आपकी भक्तिहीका अल्प फल
है। मूर्ख आदमीको ग्रंथका अध्ययन (पढ़ना) जैसे दुःखके लिए होता है वैसेही जिन मनुष्योंके मनमें आपकी भक्ति नहीं है उनके बड़े बड़े तप भी व्यर्थ कायक्लेशके लिए ही होते हैं । हे प्रभो! आपकी स्तुति करनेवाले और निंदा करनेवाले दोनोंपर आप समान भाव रखते हैं, परंतु अचरज इस वातका है कि दोनोंको शुभ और अशुभ फल अलग अलग मिलता है। हे नाथ ! मुझे स्वर्गकी लक्ष्मीसे भी संतोप नहीं है, इससे मैं माँगता हूँ कि मेरे हृदयमें आपकी अक्षय (कमी नाश न होनेवाली) और अपार भक्ति हो।" इंद्र इस तरह स्तुति कर, फिरसे नमस्कार कर नरनारी और देव-देवांगनाओंसे आगे, (प्रभुके सामने हाथ जोड़ कर बैठा । (१७८-४८७)