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७४२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६.
महाभयंकर प्रलयकालकी आग जलसे बुझाई जा सकती है। प्रलयकालके उत्पातसे तीव्र बना हुआ पवन मंद किया जा सकता है; गिरता हुआ पर्वत सहारा लगाकर रोका जा सकता है मगर मौत सैकड़ों प्रयत्न करके भी नहीं रोकी जा सकती। इसलिए तुम यह सोच सोचकर दुख न करो कि स्वामीके द्वारा हमें सौंपे गए, स्वामीके पुत्र, इस दुनियासे चल बसे हैं । शोकमें डूबते हुए तुम्हारे स्वामीको हाथ पकड़नेकी तरह, मैं उपदेशप्रद वचन कहकर, पकड़ रक्यूँगा।" (४८-५६)
इस तरह सयको धीरज बँधा, उस ब्राह्मणने रस्तेमें पड़े हुए किसी अनाथ मुर्दैको उठाकर विनीता नगरीमें प्रवेश किया; और सगरचक्रीके राजगृहके आँगनमें जा ऊँचा हाथ कर, उप स्वरमें इस तरह कहना प्रारंभ किया, "हे न्यायी चक्रवर्ती ! हे अखंड मुजपराक्रमी राजा! तुम्हारे इस राज्यम अब्रह्मण्यकर्म हुआ है-अत्याचार हुआ है। स्वर्गमें इंद्रकी तरह आप इस भरत क्षेत्रमें रक्षक हैं, तो भी मैं लुट गया हूँ।"
(६०-६३) ऐसी अश्रुतपूर्व बात सुनकर, सगर चक्रीके हृदयने अनुभव किया, मानो उस ब्राह्मणका दुख उसमें फैल गया है । उसने द्वारपालसे कहा, "यह कौन है ? इसको किसने लूटा है ? यह कहाँसे आया है ? आदि सारी बातें उससे पूछकर मुझे पता या उसे यहीं बुला ला" द्वारपालने तत्कालही आकर उससे पूछा; मगर वह तो द्वारपालकी बात सुनता ही न हो ऐसे चिल्लाता ही रहा। तब फिरसे द्वारपालने कहा, "हे ब्राह्मण ! तू दुःखसे बहरा हो गया है या स्वाभाविक रूपसे ही बहरा है? ये अजित.