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श्री अजितनाथ-चरित्र
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की थी वह पूरी नहीं हुई। इससे (बेकार) प्राणीकी तरह जीनेसे क्या फायदा है ? शायद पुत्रोंकी हृदयद्रावक मौत सुनकर चक्र. वर्तीके प्राणपखेरू उड़ जाएंगे। इससे यह अच्छा है कि हम उनसे पहलेही प्राण त्याग दें।" इस तरह जब वे मरनेका निर्णय कर रहे थे तब कोई गेरुवावस्त्रधारी ब्राह्मण वहाँ आया।
(३८-४७) वह श्रेष्ठ ब्राह्मण कमलके समान हाथ ऊँचा करके जीवन देनेवाली वाणीमें, श्रात्महत्या नहीं करनेकी बात समझाता हुआ बोला, "हे किंकर्तव्यमूढ़ बने हुए पुरुषों ! तुम अस्वस्थचित्त क्यों हो रहे हो ? तुम उन खरगोशोंके समान हो रहे हो जो शिकारीको आते देखकर ही गिर पड़ते हैं। तुम्हारे स्वामीके एक हजार पुत्र, युगलियोंकी तरह मर गए हैं, मगर उसके लिए अब दुःख करनेसे क्या लाभ है ? एक साथ जन्मे हुए भी कई बार वे अलग अलग स्थानोंपर अलग अलग वक्तपर मरते है और कई जुदा जुदा स्थानोंमें जन्मे हुए भी कई वार एकही समय एक स्थानपर मरते है ! एक साथ बहुत भी मरते हैं और कम भी मरते हैं। कारण,मौत तो सबके साथ है ही । जैसे सैकड़ों प्रयत्न करनेपर भी प्राणीका स्वभाव नहीं बदला जा सकता, वैसेही चाहे जितना प्रयत्न किया जाय, मगर मौत नहीं टाली जा सकती। अगर मौत टाली जा सकती होती, तो इंद्रों और चक्रवर्तियों आदिने आज तक इसका प्रयत्न क्यों नहीं किया ? क्यों उन्होंने खुदको और अपने स्वजनोंको मौतके पंजेसे नहीं छुड़ाया ? आकाशसे गिरता हुआ वन हाथमें पकड़ा जा सकता है; उद्धांत बना हुआ समुद्र पाल बाँधकर रोका जा सकता है;