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.. सागरचंद्रका वृत्तांत
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इस तरह हो रही थी मानों वह दूसरी इंद्रियोंके विषयोंको जीतने के लिए निकली है । (१४-१८) . . . . .
उसी समय पासकी किसी वृक्षोंकी सुरभुटमेंसे स्त्रीकंठसे निकलती हुई "रक्षा करो! रक्षा करो!' की आवाज सुनाई दी। सुनतेही सागरचंद्र उस तरफ आकर्षित हुआ और ' क्या
है? क्या है ?' कहता हुआ जल्दीसे आवाजकी तरफ दौड़ा। वहाँ • जाकर उसने देखा, कि भेड़िया जैसे मृगीको पकड़ता है वैसेही पूर्णभद्र सेठकी पुत्री प्रियदर्शनाको बंदीयोंने (बदमाशोंने) पकड़ रक्खा है। सागरचंद्रने एक बदमाशके हाथसे छुरी इस तरह छीन ली जिस तरह सर्पकी गरदन मोड़कर मणि निकाल लेते है। उसकी यह वीरता देखकर दूसरे बदमाश भाग गए । कारण,
"व्याघ्रा अपि पलायंते ज्वलज्ज्वलनदर्शनात् ।"
[ जलती आगको देखकर व्याघ्र भी भाग जाते हैं। ] सागरचंद्रने प्रियदर्शना को इस तरह छुड़ाया जिस तरह लकड़हारेके पाससे आम्रलता छुड़ाई जाती है। उस समय प्रियदर्शनाको विचार आया, " परोपकार करने के व्यसनियोंमें मुख्य यह कौन है ? अहो ! यह अच्छा हुआ कि मेरी सद्भाग्यरूपी संपत्तिसे आकर्षित होकर यह पुरुष यहाँ आया। कामदेवके रूपका भी तिरस्कार करनेवाला यह पुरुष मेरा पति हो।" इस तरह विचार करती हुई प्रियदर्शना अपने घरकी तरफ रवाना हुई । सागरचंद्र भी, मूर्ति स्थापित की गई हो इस तरह प्रियदर्शनाको अपने हृदय-मंदिरमें रखकर मित्र अशोकदत्त के साथ घर गया। (१६-२७)