________________
श्री अजितनाथ-चरित्र
[६२५
भीलोंके थालक अधीर हो रहे हैं और जिसमें वृक्षोंकी शाखोंके अग्रभागोंके संघर्पसे आग उछल रही है, ऐसे पर्वतों और महान अरण्योंमें, इसी तरह गाँवों और शहरोंमें अजितनाथ स्वामी स्थिर मनके साथ इच्छानुसार विहार करते थे। किसी समय पृथ्वीकी तरफ देखनेसे चक्कर आजाएँ ऐसे ऊँचे पर्वतके शिखरपर मानो दूसरे शिखर हों ऐसे प्रभु कायोत्सर्ग करके स्थिर रहते थे, कभी ऊँची कुलौंचें भरते कपियोंके झंडोंने जिसकी अस्थिसंधियोंको (कगारोंको) तोड़ डाला है ऐसे महासमुद्रके तटपर वृक्षकी तरह स्थिर रहते थे, कभी क्रीड़ा करते हुए उत्ताल वेतालों, पिशाचों और प्रेतोंसे भरे हुए और जिसमें बवंडरसे धूलि उड़ रही है ऐसे मसानमें कायोत्सर्ग करके रहते थे। इनके सिवा और भी अधिक भयंकर स्थानोंमें स्वभावसे धीर प्रभु लीलामात्रसे, कायोत्सर्ग करके रहते थे। आर्य देशोंमें विहार करते हुए अक्षीण शक्तिवाले भगवान अजितनाथ, कभी चतुर्थ तप करते थे,कभी छह तप करते थे और कभी अहम तप करते थे, कभी दशम तप, कभी द्वादश तप, कभी चतुर्दश तप, कभी षोडश तप, कभी अष्टादश तप, कभी मासिक तप, कभी द्विमासिक तप, कभी त्रिमासिक तप, कभी चतुर्मासिक तप, कभी पंचमासिक तप, कभी षटमासिक तप, कभी सप्तमासिक तप
और कभी अष्टमासिक तप करते थे। कपालको तपा देनेवाले सूर्यके आतापवाली ग्रीष्म ऋतुमें भी देहमें स्पृहान रखनेवाले प्रभु कभी वृक्षच्छायाकी इच्छा नहीं करते थे, गिरते हिमसमूहसे, जिसमें वृक्षोंका समूह दग्ध होजाता था ऐसी, हेमंत ऋतुमें भी