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६२४] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २. सर्ग ३,
वगैरासे प्रतिलाभित' होते थे, किसी जगह सुंदर विलेपनसे उनके चरणकमल चर्चित होने थे, कहीं श्रावकोंक बंदना करनेवाले बालक राह देखने थे, कहीं दर्शनमें अतृप्त लोग उनके पीछे पीछे चलते थे, कहीं लोग उनका चन्द्रोंस उत्तारण मंगल करत थे। कहीं लोग दही, दूर्वा और अनतादिसे उनको अर्थ देत थे, कहीं लोग अपने घर जाने के लिए उनको रस्त में रोकनें थे, कहीं उनके चरणाम पृथ्वीपर लोटत हुए लोगोंसे उनका मार्ग सकता था, कहीं श्रावक अपने मस्तक बालोस उनके चरणोंकी धूलि साफ करते थे और कहीं मुग्धबुद्धिक लोग उनका श्रादेश माँगते थे। इस तरह निग्रंथ, निर्मम और निःह प्रभु अपने संसर्गम गाँवों और शहरोको नार्थक समान बनाते हुए वमुधापर, विहार करने लगे। (३.३-३४)
लो मल्ल पक्षियोंके धुतकार शब्दोंसे भयंकर है, जिसमें सियार अत्यंत प्रकार कर रहे हैं, जो सपोंकी फुकारसे भया. बना हो रहा है, जिसमें मनवान बिलाव उन्लोश कर रहे हैं, उनके शब्द वाघोंसे भी विकरात मालूम होने हैं, जिसमें चमुरु मृग करताका बरनाव कर रहे हैं, जो केसरी सिंहॉकी गर्जनासे प्रतिञ्चनिन हो रहा है, जिसमें बड़े हाथियोंके द्वारा तोड़े गए ज्ञॉस उई हप काक पक्षियोंकी काँ को हो रही है, सिंहॉकी पूँछोंकी फटकारसे जिसकी पापागामय भूमि भी हटा करती है, नहाँक मागे,अष्टापदोंक द्वारा वर्ग किए गए हाथियोंकी हड़ियाँसे भरे हुए है, जहाँ शिकारक उत्सकमालो धनुषांकी टंकारोंकी प्रतिश्चनियाँ सुनाई देती है,जहाँ गंछोंके कान लेने के लिए,
१-मितता था।