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________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६२३ रंगके फूलोंकी दृष्टि की। फिर अहो दान ! अहो दान ! ऐसे शब्दोंका उच्चारण करते हुए आनंदित मनवाले देवता उच्च प्रकारके जय जय शन्दोंके साथ श्राकाशमें बोलने लगे, "इन प्रभुको दिए गए श्रेष्ठ दानका फल देखो। इसके प्रभावसे दाता तत्कालही अतुल्य वैभववाला तो होताही है; परंतु इससे भी बढ़कर कोई इसी भवमें मुक्त होता है, कोई दूसरे भवमें मुक्त होता है, कोई तीसरे भवमें मुक्त होता है अथवा कल्पातीत' कल्पोंमें उत्पन्न होता है। जो प्रभुको दी जानेवाली भिक्षा देखते हैं वे भी देवताभोंकी तरह नीरोग शरीरवाले होते हैं । (२८८-२६८) - हाथी जैसे पानी पीकर सरोवरमेंसे निकलता है वैसेही, प्रभु पारना करके ब्रह्मदत्त राजाके घरसे बाहर निकले। तव ब्रह्मदत्तराजाने यह सोचकर कि कोई प्रभुके खड़े रहनेकी जगहको न लौधे, जहाँ प्रभु खड़े रहे थे, वहाँ रत्नोंकी एक पीठ बनवा दी। प्रभु वहाँ विराजमान हैं यह मानता हुआ ब्रह्मदत्त पुप्पादिसे उस पीठकी पूजा करने लगा। चंदन पुष्प और वखादि द्वारा जब तक पीठकी पूजा न कर लेता था तब तक वह, यह सोचकर भोजन नहीं करता था कि अब तक स्वामी भूखे हैं। (२६६-३०२) हवाकी तरह वेरोक्र भ्रमण करनेवाले भगवान अजित स्वामी, अखंड ईयर्यासमितिका पालन करते हुए, दूसरी जगह विहार कर गए। मार्गमें कई जगह ये प्रासुकर, पायसान्न', -ग्रंवेयक और अनुत्तर विमान कल्यातीत कल्प कहलाते हैं। २.-दोष रहित। ३-दूध पना भोजन ।
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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