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भ० ऋपभनाथका वृत्तांत [५०७ के मिटनेसे सूर्य प्रकाशित होता है वैसेही, घातिकर्मों के नाशसे केवलज्ञान प्रकट हुआ। (७२३-७३८)
उस समय तत्कालही इंद्रका आसन काँपा। कारण,'महद्भ्यो महतामृद्धिमपि शंसंत्यचेतनाः ॥"
[अचेतन वस्तुएँ भी महान पुरुषोंकी महान समृद्धि घता देती हैं।] अवधिज्ञानसे जानकर इंद्र भरत राजाके पास आया। भक्त पुरुप स्वामीकी तरह स्वामीके पुत्रकी भी सेवा करते हैं; मगर जब पुत्रको भी केवलज्ञान उत्पन्न हो गया तब वे क्या न करें ? इंद्रने वहाँ आकर कहा," हे केवलज्ञानी ! श्राप द्रव्यलिंग स्वीकार कीजिए जिससे मैं आपको वंदना कद और आपका निष्क्रमण ( गृहत्याग ) उत्सव कर।" भरतने भी उसी समय बाहुबलीकी तरह पाँच मुट्ठी केशलोचन रूप दीक्षाका लक्षण अंगीकार किया और देवताओंके द्वारा दिए गए रजोहरण वगैरा उपकरणोंको स्वीकार किया। उसके बाद इंद्रने उनको चंदना की। कारण,"न जातु वंद्यते प्राप्तकेवलोपि ह्यदीक्षितः ।" (७४४)
[केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर भी प्रदीक्षित पुरुषको वंदना नहीं की जाती। उसी समय भरत चमोके आश्रित दस हजार राजाओंने भी दीक्षा ली। कारण, वैसे स्वानीकी सेवा परलोकमें भी सुख देनेवाली होती है । ( 16-७४५)
फिर पृथ्वीका भार सहन करनेवाले भरत चमावर्ती के पुत्र मादित्ययशाफा इंद्रने राज्याभिषेक किया। (७४६ )