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५०६ ] त्रिषष्टि शलाका पुत्प-चरित्रः पत्र १. सर्ग६.
होने लगा। वक्षस्थल (छाती ) से हार हटा दिया, इससे वह तारोंरहित आकाशसा शून्य दिखने लगा। भुजबंध निकालनेसे दोनों हाथ लताके वेष्टनसे रहित दो सालवृक्षोंके समान मालूम होने लगे। हाथोंके मूलमेंसे कड़े निकाल डाले, इससे वे आमलसारक विनाके प्रासादकी तरह मालुम होने लगे।
दूसरी सभी अँगुलियाँस अँगूठियाँ निकाल डाली,इससे वे मणिरहित सपके फनके जैसी मालूम होने लगी। पावाँसे पादकटक' निश्चल दिए, इससे पैर राजहस्तिके स्त्रणकंकड़ोंरहित दाँतोंके समान दिखने लगे। सभीआभूषण निकाल देनेसे उनका शरीर पत्रहीन वृक्षकी तरह दिखने लगा। इस तरह अपने शरीरको शोभाहीन देखकर महाराजा विचार करने लगे, "अहो ! इस शरीरको धिक्कार है! जैसे चित्र बनाकर दीवारकी कृत्रिम शोमा कीजाती है, ऐसेही शरीरकी भी आभूषणोंसे कृत्रिम शोभा की जाती है। अंदर विष्टादिके मलसे और बाहर मूत्रादि के प्रवाहसे मलिन इस शरीरमें, विचार करनेसे, कुछ भी शोभनीय नहीं मालूम होता। खारी जमीन जैसे वर्षाके तलको दूषित करनी है वैसेही यह शरीर, विलेपन किए हुए कपूर और कस्तरी वगैराको भीषित करता है। जो विषयोंका त्याग कर मोक्षफल देनवाला तप तपते हैं वे तत्वके जानकार पुल्पही इस शरीरका फल ग्रहण करते है। इस तरह विचार करते हुए सम्यक प्रकारसे अपूर्वकरणके अनुक्रमसे आपकश्रेणीमें अल्ड हुए और शुक्लव्यानको पाए हुए उन महाराजको, जैसे बादलों
?-रीका एक श्राभूषण।