________________
भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
[ ५०५
देवदूष्य वखसे शरीरको साफ कर, केशोंमें पुष्पमाला गूंथ, गोशीर्षचंदनका सारे शरीरमें लेप कर, अमूल्य और व्य रत्नोंके आभूषण सारे शरीर में धारण कर, अंतःपुरकी अनेक स्त्रियों के साथ, छड़ीदार के बताए हुए मार्ग से अंतःपुर के अंदर के रत्नमय आदर्शगृहमें गए। वहाँ आकाश और स्फटिकमणिके जैसे निर्मल तथा अपने सारे अंगका प्रतिबिंब देखा जा सके ऐसे मनुष्यकी आकृति के जितने बड़े दर्पण में अपने स्वरूपको देखते हुए महाराजाकी अँगुलीमेंसे मुद्रिका निकल पड़ी। जैसे कला करते समय मोरका एकाध पंख गिर पड़े और उसे पता भी न चले वैसे ही महाराजाको, उनकी अँगुली से गिरी हुई अँगूठी का पता न चला। धीरे धीरे शरीर के सारे भागको देखते हुए, उन्होंने दिनमें चंद्रिका बिनाकी चंद्रकलाकी तरह अपनी अँगूठीरहित अँगुलीको कांतिहीन देखा । "अरे ! यह अँगुली शोभार हित कैसे है ?" यो सोचते हुए भरत राजाने जमीनपर पड़ी हुई मुद्रिका देखी । वे विचार करने लगे, "क्या दूसरे अंग भी विना आभूपणोंके इसी तरह शोभाहीन मालूम होते होंगे ?" फिर उन्होंने धीरे धीरे दूसरे आभूषण भी उतारने आरंभ किए ।
(७१५-२४२३)
पहले मस्तक से माणिक्यका मुकुट उतारा इससे मस्तक रत्नविनाकी मुद्रिका जैसा दिखाई दिया। फानोंसे माणिक्य के कुंडल उतारे, इससे दोनों फान चौद और सूरजहीन पूर्व और पश्चिम दिशाओं के समान मालूम होने लगे । कंठाभूषण हटानेसे उनका गला जल बिनाकी नदीके समान शोभाहीन मालम