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५०४ । त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १ सर्ग ६.
दर्शनसे मानो गुस्से हुईं हों ऐसे मृगाक्षियोंकी आँखें लाल हो गई, और अंगनाओंके अंगोंसे गल गलके उतरे गाढ़े अंगरागसे कीचड़वाला बना हुआ वह जल यक्षकर्दमसा हो गया। इसी तरह चक्रवर्ती बार बार क्रीड़ा करते थे। (६६७-७०५).. " ___एक बार इसी तरह जलक्रीड़ा करके महाराजा भरत इंद्रकी तरह संगीत कराने के लिए विलासमंडपमें गए। वहाँ वेणु बजानेवाले उत्तम पुरुष मंत्रोंमें ॐकारकी तरह संगीत कर्ममें प्रथम ऐसे मधुर स्वर वेणुमें भरने लगे। वीणा बजानेवाले, कानोंको सुख देनेवाले और व्यंजन धातुओंसे स्पृष्ट ऐसे पुष्पादिक स्वरों द्वारा ग्यारह तरहकी वीणा बजाने लगे। सूत्रधार अपने कविपनका अनुसरण करते हुए, नृत्य तथा अभिनयकी माताके समान प्रस्तार-सुंदर नामकी ताल देने लगे। मृदंग और प्रणव नामके बाजे बजानेवाले, प्रियमित्रकी तरह परस्पर थोड़ासा भी संबंध छोड़े वगैर अपने वाद्य बजानेलगे। 'हा हा' और 'हू हू' नामक देवताओंके गंधोंका अहंकार मिटानेवाले गायक स्वरगीतिसे सुंदर ऐसे नई नई शैलियों (तजों) के रागोंको गाने लगे। नृत्य और तांडव में चतुर नटियाँ विचित्र । प्रकारके अंगविक्षेपोंसे सबको अचरजमें डालती हुई नाचने । लगीं। महाराजा भरतने ये देखने योग्य नाटक निर्विघ्नरूपसे देखे । कारण, समर्थ पुरुष चाहे कैसाही व्यवहार करें उनको कौन रोक सकता है ? इस तरह संसारका सुख भोगते हुए भरतेश्वरने प्रभुके मोक्ष जाने के बाद पाँच लाख पूर्व बिताए । (७०६-७१४) ..भरतका वैराग्य, केवलज्ञान व मोक्ष एक दिन भरतेश्वर स्नान कर, बलिकर्मकी कल्पना कर,