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६४] विपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २ सर्ग३.. है। मानो स्वर्णके पंखोंवाले पक्षी हों ऐसे स्वर्णके कवचवाले अश्वोंसे, पाल चढ़ाए हुए कृपन्तंभोंवाले' जहाज हों ऐसे ऊँची ध्वजाओंके खंभोंवाले रथोंसे, झरनोंवाले पर्वत हों ऐसे मद भरते उत्तम हाथियोंसे, और मानो सर्पसहित सिंधुकी तरंगें हों ऐसे ऊँचे हथियारोवाले प्यादोंसे पृथ्वीको चारों तरफसे आच्छादित करता हुआ सगरचक्री सहस्राम्रवन नामक उपवनके समीप आया। फिर,महामुनि जैसे मानसे उतरते हैं उसी तरह, सगर राजा उद्यानके दरवाजे की स्वर्णवेदीपर हाथीसे उतरा। उसने अपने छत्र, चमर इत्यादि राज्यचिह्न भी वहीं छोड़ दिए । कारण, विनयी पुरुपोंकी ऐसीही मर्यादा होती है। उसने विनयके कारण पैरोंसे जूते निकाल दिए। छड़ीदारके द्वारा दिए गए हाथके सहारेकी भी उपेक्षाकी-हाथका सहारा नहीं लिया और वह राजा नगरके नानारियों के साथ पैदल चलकर समव. सरणके पास पहुँचा। फिर, मकरसंक्रांतिके दिन सूर्य जैसे आकाशके आँगनमें प्रवेश करता है ऐसेही, सगर राजाने उत्तर द्वारसे समवसरण में प्रवेश किया। वहाँ उसने जगद्गुरुको तीन प्रदक्षिणा सहित नमस्कार करके अमृतकं समान मधुरवाणीम स्तुति करना प्रारंभ किया, (३६-४१७) . ___ "हे प्रभो ! मिथ्यानष्टि के लिए कल्लांतकालके सूर्य के समान
और सम्यक्त्व दृष्टिके लिए अमृत के अंजनके समान और तीर्थकरपनकी लक्ष्म के लिए तिलकरूप यह चक्र आपके सामने बढ़ा है। "इस जगतमें तुम अकेलेहो स्वामी हो।" यह कहनेव लिए इंद्रने मानो इंद्रध्वजके वहानेसे अपनी तर्जनी उँगुली ऊँची
१-नौका बांधनेके स्वमा