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श्री अजितनाथ-चरित्र
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पर बैठनेवाले वे इष्ट और अनिष्ट उपसगोंको निःस्पृह और निर्भय होकर सहन करते थे।
११-शय्या परिसहः-यह संथारा (विस्तर)सबेरेही छोड़. ना पड़ेगा यह सोचकर वे मुनि अच्छे-बुरे संथारेमें, सुख-दुःख न मानते, रागद्वेष छोड़कर सोते थे।
१२-आक्रोश परिसह-अपनी क्षमाश्रमणताको जानने वाले वे मुनि, गुस्सा करके बुरा भला कहनेवाले पर भी गुस्सा नहीं करते थे, वरन वे उसका उपकार मानते थे।
१३-वध-बंधन परिसह-उनको कोई मारता था (बाँधता था) तो भी जीवका नाश न करने के कारणसे, क्रोधकी दुष्टता जाननेसे, क्षमावान होनेसे और गुणोंके उपार्जनसे वे किसीपर हाथ नहीं उठाते थे-किसीको नहीं मारते थे। - १४-याचना परिसह-दूसरोंके द्वारा दिए गए पदार्थ पर जीवननिर्वाह करनेवाले यतियोंको याचना करनेपर भी यदि कुछ न मिले तो क्रोध न करना चाहिए, यह समझकर वेन याचना-दुःखकी परवाह करते थे, न (वापस) गृहस्थ बन जानेकी ही इच्छा रखते थे।
१५-अलाभ परिसह–वे अपने लिए और दूसरेके लिए भी अन्नादिक पदार्थ पाते थे कभी नहीं भी पाते थे, परंतु वेन तो पानेपर प्रसन्न होते थे और न न पानेपर अप्रसन्नही होते थे। लाभ होनेपर न मद करते थे और न अलाभ होनेपर अपनी या पराई निंदाही करते थे। . १६-रोग परिसह-वे न रोगसे घबराते थे और न इलाज