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५४० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २. सर्ग १.
करानेकीही इच्छा करते थे। वे शरीरसे आत्माको भिन्न समझ अदीन हृदयसे रोगके दुःखको सहन करते थे।
१७-तृणस्पर्श परिसह-थोड़े और बारीक वस्त्र विछानेसे विछे हुए विस्तर से तृणादिक पाने और चुमते थे; उस चुभनका दुःख वे सहते थे; मगर कभी मुलायम (या मोटे) विस्तरकी इच्छा नहीं करते थे।
१८-मल परिसह-गरमियोंके तापसे सारे शरीरका मल भीग जाता था तो भी, वे न स्नान करनेकी इच्छा करते थे, न उद्वर्तन (लेप वगैरा करके मल निकालना ) ही चाहते थे।
१६-सत्कार परिसह-(मुनिके आनेपर) सामने खड़े होना, (मुनिकी) पूजा करना और (मुनिको) दान देना आदि सत्कार-क्रियाओंकी वे चाह नहीं करते थे। वे न सत्कारके अभावमें दुखी होते थे और न सत्कार होनेपर प्रसन्नताही दिखाते थे।
२०-प्रज्ञा परिसह-चेन नानीकाज्ञान और अपना अज्ञान देखकर दुखी होते थे, न अपने ज्ञानकी उत्कर्पता देखकर अभिमान ही करने थे। ... २१-अज्ञान परिसह-ज्ञान और चारित्रसे युक्त होनेपर
भी अब तक मैं छद्मस्थही हूँ, इस भावनासे उत्पन्न होनेवाले दुःखको वे यह सोचकर सहते थे कि ज्ञानकी प्राप्ति धीरे धीरेही.. होती है।
२२-सम्यक्त्व परिसह-जिनेश्वर, उनका कहा हुश्रा शास्त्र, जीव, धर्म, अधर्म और भवांतर, ये परोक्ष हैं तो भी धे