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५१६ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग १......
प्राणी पुण्यके योगसे बहुत मेहनत करनेके बाद मनुष्यजन्म पाता है; उसमें भी प्रार्यदेशमें जन्म, अच्छे कुलकी प्राप्ति और गुरुकुलसेवा ( सद्गुरुओंकी सेवा ) जैसे कठिनतासे मिलनेवाले साधन पाकर भी जो प्राणी अपना कल्याण करनेकी कोशिश नहीं करता है वह रसोई तैयार होनेपर भी भूखा बैठे रहनेवाले मनुष्यके समान है। ऊर्ध्वगति (स्वर्ग वगैरा ) या अधोगति (नरकादि) पाना अपनेही बसमें हैं; तो भी जड्बुद्धिवाले प्राणी पानीकी तरह नीचेकी तरफही जाते हैं। "मैं समय आएगा तब धर्मके काम करूँगा" ऐसा विचार करनेवाले प्राणीको यमराजके दूत इसी तरह ले जाते हैं, जैसे जंगल में लुटेरे (असहाय) आदमीको लूट ले जाते हैं। पाप करके भी जिनका पालन-पोपण किया था उन सभी परिवारके लोगोंके सामनेही काल, रकके समान असहाय प्राणीको आकर ले जाता है। फिर नरकगतिमें गया हुआ प्राणी वहाँ अनंत दुःख उठाता है । कारण कर्जकी तरह कर्म भी जन्म जन्ममें प्राणीके साथ जानेवाले हैं। यह मेरी माँ है ! ये मेरे पिता है ! यह मेरी पत्नी है ! यह मेरा पुत्र है ! इस तरहकी जो ममतावुद्धि है वह मिथ्या है। कारण, (जब) यह शरीर भी अपना नहीं है (तब दूसरोंकी तो वातही क्या है ?) जुदी जुदी गतियोंसे आए हाए माता पिता आदिको हालत उन पक्षियोंके जैसी है जो अलग अलग दिशाओं और स्थानोंसे आकर एक वृक्षपर बैठते हैं (और सवेरा होनेपर से टकराते हुए देवयोगसे बहुत समय के बाद एक साथ या जाएँ और उसमें खोले अपने पापही पिरोए जाएँ, इस न्यायको युगशमिला न्याय' कहते हैं।
है ! इस तरहको ज
नहीं है (तब दूसरा आदिकी