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श्री अजितनाथ चरित्र
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अलग अलग दिशाओं में उड़ जाते हैं ।) अथवा उन गुसाफिरोंके जैसी है जो अलग अलग दिशाओं से आकर एक स्थानपर (मुसाफिरखानेमें) रहते हैं और सवेरे अलग अलग स्थानोंपर ले जानेवाले रास्तोंपर चल पड़ते हैं। इसी तरह मातापिता भी जुदी जुदी गतियोंमें चले जाते हैं। कुँएके रहँटकी तरह इस संसारमें जाने आनेवाले प्राणियोंके लिए अपना या पराया कोई नहीं है। इसलिए कुटुंबादिका जो त्याग करने लायक है, पहले. हीसे त्याग करना चाहिए और स्वार्थ के लिए (प्रात्महितके लिए ) प्रयत्न करना चाहिए । कहा है
.......... स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता।"
[स्वार्थसे भ्रष्ट होनेका नामही मूर्खता है। ] निर्वाण (मोक्ष) लक्षणवाला यह स्वार्थ एकांत और अनेक सुग्योंका देने. वाला है और वह मूलोत्तर' गुणों के द्वारा सूर्यकी किरणोंकी तरह प्रकट होता है।" (४३-६६)
राजा इस तरह विचार कर रहा था, उसी समय निंतामणि रत्रके समान श्रीमान अरिंदम नामक सूरि महाराज उद्यानमें आए। उनके आने की बात सुनकर उसको अमृतका चूंट पीनेमें जितना आनंद हुआ। तत्कालाही, मयूरपत्रोंके छत्री. से मानो आकाशको मेघयुक्त पनाता हो ऐसे, बाद मूरिजी महाराजको नंदना करने चला । मानो लक्ष्मीदेवीके दो कटान हो
-गोलकी प्रालिले पक्ष मूलगुगवनमारमादि फोर दार. गुण शिविशुद्धि वगैरा और सूर्यकिरणको सि. में मोर उत्तरा नक्षत्रा