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५१८ ] त्रिषष्टि शन्ताका पुनप-चरित्रः पर्व .सर्ग १.
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एवं दो चामर उसके दोनों तरफ डुलने लगे। नानके कवचबान्त होनस मानो मोनकी पायांवाल हॉस,और गतिक द्वारा पवनको जीतनयान बंगवान बोड़ोस वह सभी दिशाओंको मरने लगा। मानो अंजनाचलके चलत-फिरत शिवर. ही ऐसे बड़े हाथियोंक मारसे वह पृथ्वीको मुकाने लगा। अपने स्वामी के मनकी बान जानने उनको मनःपर्ययज्ञानहुया हो ऐसे सामन
कसाय हा लिए। बंदी (चारण) लोगों के कोलाहलकी माना म्पदा करत हो गस, अाकाशमें फैलते हुए मंगल नूयं ( तुरही ) के शब्द दूरहीय उसके आगमनकी सूचना दन हो। इपिनियोंपर बंटी हुई गंगाररसकी नायिका न्य हजारों वागंगना उसके साथ थीं। इस तरह हाथीपर सवार उस राजाकी सवारी लोकन्यानप नंदनवन समान उद्यानके पास पहुँची। फिर गजायाम जरके समान उस राजान, हाथीने उतरकर, सिंह जैन पवनकी गुफामें प्रवेश करता है ऐसे ही, उद्यान में प्रवेश किया। (६५-५७) ___यहाँ उसने दूरहीने, बन्च कवचकी तरह कामदेव बागोंद अयद्य, रागनी गंगमें दया ममान, द्वेषरुपी शत्रुके लिए द्विपनप (शत्रयांको नपानवाल) के समान क्रोवढपी अग्नि
लिए.नवीन मेघ ममान,मानन्यायनिक लिए गजके समान, मायापी सर्पिणीक दिए गनड़ समान, लोमन्पी पर्वतक लिए बनके समान, मोहन अंधकारके लिए सूर्य समान, नपल्पी अग्निके लिए अगि समान, क्षमा पृथ्वी के समान और बोधिधाननपी नलकी एक धारा समान, श्रात्माराम महामुनि श्राचार्य अरिंदमको देखा । उन श्रामपास साधुओं