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श्री अजितनाथ चरित्र
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का समुदाय बैठा था । कई उत्कटिक आसनसे, कई वीरासनसे. कई वज्रासनसे, कई पद्मासनसे, कई गोदोहिक आसनसे, कई भद्रासनसे, कई दंडासनसे कई वल्गुलिक आसनसे, कई क्रौंचपक्षी आसनसे, कई इंसासनसे, कई पर्यकासनसे, कई उष्ट्रासनसे, कई गरुड़ासनसे, कई कपालीकरण आसनसे, कई
आम्रकुजासनसे, कई स्वस्तिकासनसे, कई दंड पद्मासनसे, कई सोपाश्रय आसनसे, कई कायोत्सर्ग आसनसे और कई वृपभा. सनसे बैठे थे। रणभूमिके सुभटीकी तरह विविध उपसगोंको सहन करते हुए वे अपने शरीरकी भी परवाह न करके, निज प्रतिश्रव (अंगीकार किए हुए संयम) का निर्वाह करते थे, अंत. रंग शत्रुओंको जीतते थे, परिसहोंको सहते थे और तप-ध्यानमें समर्थ थे। (७८-८)
राजाने श्राचार्यके पास आकर वंदना की। उसका शरीर 'आनंदसे रोमांचित हो गया। रोमांचके बहाने अंकुरित भक्तिको धारण करता हो ऐसा वह मालूम होने लगा। भाचार्य महाराजने मुखके पास मुग्ययन्त्रिका(मुंहपत्ती) रखकर सर्व कल्याणकी मातारूप 'धर्मलाभ ऐसी असीस दी। फिर राजा कछुएकी तरह शरीरको सिकोड़, अयग्रह भूमिको छोड, हाथ जोड़, गुन महाराजके सामने बैठा। उसने ध्यानपूर्वक, इंद्र जैसे तीर्थ. करकी देशना सुनता है वैसे ही, आचार्य महाराजको देशना सुनी। जैसे शरद मातुसे चंद्रमा विशेष जायल होता है, सही, प्राचार्य महाराजकी देशनासे राजाको अधिक वैराग्य इमा। फिर आचार्य महाराजकी चरण वंदना कर, हाथ जोर, विनय. युम वाणी में राजाने फाहा:- (८t-2)