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· भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत
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...फिर महाराज रत्नसिंहासनसे उठे, उनके साथही मानों उनके प्रतिबिंब हों वैसे सभी उठे। जैसे पर्वतपरसे उतरते हैं वैसेही भरतेश्वर स्नानपीठसे उसी मार्गसे नीचे उतरे जिसमार्गसे वे ऊपर चढ़े थे। दूसरे भी जिस मार्गसे वे आए थे उसी मार्गसे नीचे उतर गए। पीछे, मानों अपना असह्य प्रताप हो ऐसे उत्तम हाथीपर सवार होकर चक्री अपने महलमें गए। वहाँ स्नानगृहमें जा उत्तम जलसे स्नान कर अष्टमभक्त (अट्टम तप) का पारणा किया। इस तरह बारह बरसमें अभिपेकोत्सव पूर्ण हुआ, तब चक्रवर्तीने स्नान, पूजा, प्रायश्चित और कौतुक मंगल कर बाहरके सभास्थानमें आ, सोलह हजार आत्मरक्षक देवताओंका सत्कार कर उनको विदा किया। फिर विमानमें रहनेवाले इंद्रकी तरह महाराज अपने उत्तम महलमें रहकर विषय-सुख भोगने लगे। (७०१-७०७)
महाराजाकी आयुधशालामें चक्र, खग, छत्र और दंड चार एकेंद्रिय रत्न थे; रोहणाचलमें माणिक्यकी तरह उनके लक्ष्मीगृहमें काँकिणीरत्न, चर्मरत्न, मणिरत्न और नवनिधियों थीं; अपनेही नगर में जन्मे हुए सेनापति, गृहपति, पुरोहित
और वर्द्धकि ये चार नररत्न थे; वैताट्य-पर्वतके मूलमें जन्मे हुए गजरत्न और अश्वरत्न थे और विद्याधरकी श्रेणी में जन्मा हुया एक स्त्रीरत्न था। नेत्रोंको आनंद देनेवाली मृर्तिसे वे चंद्रके समान शोभते थे दुःसह प्रतापसे सूर्य के समान लगते थे; पुरुपके रूपमें जन्मा हुआ समुद्र हो वैसे उनका मध्यभाग (हृदयका आशय ) जाना नहीं जाता था। कुबेरकी तरह उन्होंने मनुष्यका स्वामित्व प्राप्त किया था जंबूद्वीप जैसे गंगा और सिंधु