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३] विषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पत्र १, सर्ग .
दुर्गपान्द्रकी महापकी श्रादा रग।।
फिर राजा बिनर्मिन यद्यपि वह महागजको कुछ मेट करना चाहता था, नयापि मानों वह शुछ माँगना चाहता हो प, नमस्कार ऋर, हाय जोड़-चिरलमा समान, नियाम रनप अपनी मुमदा नामकी कन्या चक्रामा मेट की।
(५०६-११५) उपची पानिपली मुमत्रारस थी मानों वह नापकर बनाई गई हो, उसकी निगला वंज थी, मानों वह तीनला झं माणिकांना पुन हो; जवानां श्रीर सदा रहनत्रा सुंदर गोश्रीरनाम बहामी गोमती श्री मानी बह शनन्द्र संवत्रीमेचिरी हुई दो दिव्य श्रीपची तरह यह मत्र गंगांको शांत ऋग्नंबानी यी दिव्य जतकी तरह वह इच्छानुशल शान श्रीर उध्य माशंवाली थी । बह दीन स्थानोंवर श्याम, नीन स्थानापर संद, नानन्यानों पर नार (लान्त), नीन न्यानोपर उठन, दीन स्यानांवर नमार, तीन न्यानोपर, विन्ती, दीन स्थानोपर दी और तीन स्थानोपराश थी। श्रन शकलापसे (कंशांक ममूहल ) वह मोर जलापत्र (पन्समूहको ) जीनती श्री और हन्नाट अमीचंद्रन हगती थी। उनकी याद रति परमानिका डावापिका थीं: नमकी दीयं नासिका तलाट
लावण्य (मौदय) की जन्नधारा समान थी; उप मुंदर गान्न नपान दर्षगा समान था उसु ऋयों तक पहुँचत हुए दानों ऋान मानों दोमंत उपहाट एक नाय पक हुए विनतममान जयंदानहोगणियाची अंगाकी शामाकी पगमत्र ऋग्नंबान्त था उनका टमंदल (गल्ता) पटकी हरह