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७६८ } त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६.
दौड़ता हुआ आपके घरके दरवाजेपर शब्द करता आ रहा है। हे पृथ्वीपति ! जलमें डूबे हुए नगरका मानो अब शेष भाग हो ऐसा यह आपका महल बंदरके समान मालूम होता है। आपकी महरवानीसे उन्मत्त बने हुए राजसेवक जैसे आपके महलोंके जीनोंपर चढ़ते हैं वैसेही, यह पानी बरोक आपके महलोंके जीनांपर चढ़ रहा है। आपके महलोंकी पहली मंजिल इब गई, दमरी इव रही है और अब तीसरी मंजिल भी डूबने लगी है। अहो! क्षणभरमें देखते ही देखते चौथी, पाँचवीं और छठी मंजिलें भी समुद्र के जलसे भर गई। विषके वेगकी तरह चारों तरफसे इन घरके अासपास जलका जोर बढ़ रहा है अव शरीरमें मस्तकी वरद्द केवल छत ही वाकी रही है। है राजा! यह प्रलय हो गया। मन जिस तरह पहले कहा था वैसाही हुआ है। उस वक्त जो मुकार हँस रहे थे वे आपकी सभामें बैठनेवाले व्योतिषी अब कहाँ गए ? (३४६-३६१) ___ तब विश्व-संहारके शोकसं राजाने पानी में कूदने के लिए खड़े होकर कमर कसी और यह बंदरकी तरह उछलकर की गया । क्षणभरके बाद राजाने अपने आपको पहले की ही तरह सिंहासनपर बैठा पाया, और क्षणमात्रमही नमुद्रका जल ग मालूम नहीं चला गया। राजाको श्रॉन्में आश्चर्यस फैल गई और उसने देखा कि वृक्ष, पर्वत, किला और सारी दुनिया जैसे थे वैसेही मौजूद हैं। (३६२-३६५)
अब वह लादूगर ढोलक बाँधकर अपने हाथोंसे बजाते हए इस तरह कहने लग "आरंममें इंद्रजालका प्रयोग करने वाले और आदिमें इंद्रजालकी कलाका सर्जन करनेवाले संवर