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१८६] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग२.
उनपर निरंतर किरणें पड़नेसे वे क्रीड़ा करनेको अमृतसरसी (वावड़ी) के समान शोभते थे। कई स्थानोंपर पद्मरागमणियोंकी शिलाओंकी किरणें फैलरही थीं, उनसे वह मंडप कसूंबी और विस्तारवाले दिव्य वखोंको संचित करनेवालासा मालूम होता था। कई स्थान नीलमणियोंकी शिलाओंके बहुतही मनोहर किरणों के अंकुर पड़नेसे, मंडप फिरसे बोएहुए मांगलिक यवांकुरवालासा जान पड़ता था। कई स्थानोंपर मरकतमय (रत्नमय) पृथ्वीकी किरणें निरंतर पड़ती थी, इससे वह वहाँ लाए हुए नीले, और मंगलमय वाँसोंकी शंका पैदा करता था। उस मंडप पर सफेद दिव्य बस्रोंका उल्लेच (चंदोवा) बंधा था, वह ऐसा मालूम होता था मानों आकाश-गंगा चॅदोवेके बहाने वहाँ कौतुक देखने आई है। और चदोवेके चारों तरफ खंभों पर मोतियोंकी मालाएँ लटकाई गई थीं,वे आठों दिशाओंके हर्षकी हँसीसी जान पड़ती थीं। मंडपके वीचमें देवियोंने रतिके निधानरूप रत्न. कलशोंकी आकाश तक ऊँची चार श्रेणियाँ (कतारें) स्थापन की थीं। उन चार श्रेणियोंके कुंभोंको सहारा देनेवाले हरे वाँस विश्वको सहारा देनेवाले स्वामीके वंशकी वृद्धिको सूचित करते हुए शोभते थे। (७६८-७८४) ___ . उस समय-"हे रंभा माला ( बनाना ) प्रारंभ कर । हे उर्वशी ! दुव तैयार कर । हे घृताचि ! घरको (दूल्हेको) अर्घ्य देनेके लिए घी और दही वगैरा चीजें ला । हे मंजुघोपा ! सखियों से धवलमंगल अच्छी तरहसे गवा। हे सुगंध! तू सुगंधित चीजें तैयार कर । हे निलोत्तमा! दरवाजे मुंदर साथिया पूर। हे मैना ! तू पाए हुए लोगोंका सुंदर पालापकी रचनासे सम्मान