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. सागरचंद्रका वृत्तांत .
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कर । हे सुकेशी! वरवधूके लिए केशाभरण तैयार कर । हे सहजन्या ! जन्ययात्रा ( बारात) में आए हुए पुरुषोंको स्थान बता। हे चित्रलेखा ! मातृभुवनमें विचित्र चित्र बना।हे पूर्णिमे! तू पूर्णपात्र शीघ्र तैयार कर । हे पुंडरीके ! तू पुंडरीकों (कमलों) से पूर्ण कुंभोंको सजा। हे अम्लोचे! तू वरमंचिका (वरके . लिए चौकी ) योग्य स्थानमें रख । हे हंसपादि ! तू वरवधूकी पादुकाएँ (जोड़े) रख । हे पुंजिकास्थला! तू वेदिकाको गोमय (गोबर) से शीघ्र लीप । हे रामा! दूसरी तरफ कहाँ रमती है (खेलती है ) ? हे हेमा ! तू सोनेको क्यों देख रही है ? हे द्रुतुस्थला ! तू पागलकी तरह विसंस्थुल (शांत ) कैसे हो रही है ? हे मारिची ! तू क्या विचार कर रही है ? हे सुमुखी ! तेरा मुख क्यों विगड़ रहा है ? हे गांधर्वी ! तू आगे क्यों नहीं रहती ? हे दिव्या! तू वेकार खेल क्यों कर रही है ? अब
लग्नका मूहूर्त नजदीक आगया है। सभी अपने अपने विवा-होचित काम जल्दी पूरे करो।" इस तरह अप्सराएँ एक दूसरे
को, नाम लेकर पुकार पुकारकर कह रही थीं। उससे वहाँ अच्छा कोलाहलसा हो रहा था। (७८५-७६५)
फिर कुछ अप्सराओंने सुमंगला और सुनंदाको मंगलस्नान करानेके लिए चौकियोंपर बिठाया । मधुर, धवल-मंगलगान करते हुए पहले उन्होंने उनके सारे शरीरपर सुगंधित तेलका अभ्यंग किया (मालिश की), फिर जिनके रजके पुजसे पृथ्वी पवित्र हुई है ऐसी उन दोनों कन्याओंके वारीक उबटन लगाया; फिर उनके दोनों चरणोंपर, दोनों हाथापर, दोनों घुटनोंपर, दोनों कोपर और एफ केशी, ऐसे नौ श्यामतिलक किए । वे उनके