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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
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पुरुष कौन हो सकते हैं ? हाँ ! अब मेरी समझमें आया। निरपेक्ष (वैराग्यवाले) श्रावक भी ऐसेही गुणवान होते हैं, इसलिए यह सब उन्हेंही दे देना योग्य है।" ( १६५-२१३)
ऐसा निश्चय करनेके बाद चक्रीने स्वर्गपति इंद्रके प्रकाशमान और मनोहर आकृतिवाले रूपको देखकर आश्चर्यसे पूछा, "हे देवपति ! क्या आप स्वर्गमें भी इसी रूपमें रहते हैं या किसी दूसरे रूपमें ? क्योंकि देवता तो कामरूपी (इच्छित रूप बना. नेवाले ) कहलाते हैं।"
इंद्रने कहा, "राजन् ! स्वर्गमें हमारा रूप ऐसा नहीं होता, वहाँ जो रूप होता है उसे तो मनुष्य देख भी नहीं सकते।"
भरतने कहा, "आपके उस रूपको देखनेकी मेरी प्रबल इच्छा है, इसलिए हे स्वर्गपति ! चंद्र जैसे चकोरको प्रसन्न करता है, वैसेही आप, अपनी दिव्य आकृतिसे दर्शन देकर मेरे नेत्रोंको प्रसन्न कीजिए।"
इंद्रने कहा, "हे राजा ! तुम उत्तम पुरुष हो, तुम्हारी प्रार्थना व्यर्थ न होनी चाहिए, इसलिए मैं तुम्हें मेरे एक अंगका दर्शन कराऊँगा।" फिर इंद्रने उचित अलंकारोंसे सुशोभित
और जगतरूपी मंदिरमें एक दीपके समान अपनी एक उँगली भरतराजाको बताई। प्रकाशित तथा कांतिमान उस उँगलीको देखकर, पूर्णिमाको देखकर जैसे समुद्र उल्लसित होता है वैसेही मेदिनीपति भरत भी उल्लसित हुए। इसप्रकार भरतराजाका मान रखकर, भगवानको प्रणाम कर, संध्याके बादलकी तरह इंद्र तत्काल अंतर्धान हो गए।
चक्रवर्ती भी स्वामीको नमस्कार कर, करने के कार्योंका