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१५४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६.
[सरलतामें सब शोभा देता है। उस समय "हे राजेंद्र ! मुनियोंके लिए रानपिंड ग्राह्य नहीं है। ऐसा कहकर धर्मचक्री प्रभुने चक्रवर्तीको फिरसे रोका । प्रभुने सब तरहसे मुझे मना क्रिया, यों सोचकर,चंद्र जैसे राहसे दुखी होता है वैसेही, महा
राजा भरत पश्चातापसे दुखी होने लगे। भरतको इस प्रकार उलझनमें पड़े हुए देखकर इंद्रने प्रभुसे पूछा, "हे स्वामी ! अबग्रह (रहने व फिरनेके लिए पाना लेनी पड़े ऐसे स्थान) कितने प्रकारके हैं"
प्रमुने कहा, "इंद्र संबंधी, चक्री संबंधी, राजा संबंधी, गृहस्थ संबंधी और साधु संबंधी-ऐसे पाँच प्रकारकं अवग्रह होते हैं। ये अवग्रह उत्तरोत्तर पूर्व पूर्वके बाधक होते हैं। उनमें पूर्वोक्त और परोक्त विधियों में पूर्वोक्त विधि बलवान है।"
इंद्रने कहा, "ह देव ! जो मुनि मेरे अवग्रहमें विहार करते हैं उन्हें मैंने मेरे अवग्रहकी श्राक्षा की है।"
इंद्र ऐसा कह, प्रमुक चरण-क्रमलोंमें प्रगाम कर खड़ा रहा । यह मुन भरत राजाने पुनः सोचा "यद्यपि उन मुनियोंने मेरे अन्नादिकका आदर नहीं किया, तथापि अवग्रहकं अनुग्रहकी श्रानासे तो में धन्य हो सकता है।" ऐसा विचारकर श्रेष्ट हृदयवाले चक्रीन इंद्रकी तरहही प्रभुकेचरगणों के पास जाकर अपने अवग्रहकी भी याना की। फिर उसने अपने सहधर्मी इंद्रसे पूछा, "अभी यहाँ लाण हुए अन्नादिकका अब मुझे क्या करना चाहिए "
इंद्रन कहा, "वह सब विशेष गुगावाले पुरुपोंको दे दो।" भरतन सोचा, साधुयांक सिवा दसर विशेष गुगावान