________________
__१५२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६.
फूटने हैं। हे नाथ ! मेव-वृष्टिकी नरह और चंद्रकी चंद्रिकाके समान, श्रापकी कृपा सबपर एकसी रहती है।" (१७-१८०)
इस तरह प्रमुकी नुनि कर, उनको नमस्कार कर भरखपनि सामानिक देवनाओंकी तरह इंद्रके पीछे लाकर बैठा। देवताओंके पीछे सभी पुरुप बैठ और पुरुषोंक पीछे सभी त्रियों खड़ी रही। प्रमुकं निर्दोष शासनमें स चतुर्विध धर्म रहता है वैसही, समयमरणकं प्रथम किनमें इस तरह चतुर्विध मंच बैठा। दुसरं प्राकाग्में (परकोटमें), सब नियंच परस्पर विरोधी स्वभाववाले हान हुए भी नवान्न सहोदर हो ऐसे, श्रानंद सहित बैठे। समवसरणार नीमर परकोटमें श्रागन राजाओंके समी बाइन हाथी-घोड़ बांग) देशना सुनने के लिए ऊँचे कान करके खड़े रहे। फिर त्रिभुवनपनिन, सभी भाषाओवाले समझ जाएं ऐसी भाषा और मेयकं समान नीर वाणी में देशना देनी श्रारंभ की । देशना नुनत हुप नियंच, मनुष्य और देवता ऐसे दृर्षिन हुए, मानो ये अति अघिच बोमसे छुटकारा पा गए हैं। मानो वे इष्टपदको पा गए हैं। मानो उन्ढोंने कल्याण अभिषेक किया है, मानो वे ध्यान में लीन है, मानो उन्होंने अहमिद्रपद पाया है। मानो उन्होंने परब्रमको पाया है। देशना समाप्त होनपर महावनका पालन करनवान अपने भाइयों को देख, मनम दुखी हो, मगन इस तरह विचार करने लगा। (१८१-१८) ____ अफसोस ! मैंन यह क्या किया? मैं सदा श्रागकी तरह अनुन मनवाला हूँ, इसीलिए मैन माइयाँका राज्य ले लिया। अब यह भोग-पलवानी लक्ष्मी, दूसरीको दे देना मेरे लिए इसी तरह निम्मत है जिस तरह किमी मन्त्रका रामचम घी होमना निष्फत