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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
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संयम लेनेकी इच्छा रखनेवाला पुरुप जैसे गृहस्थ धर्मसे उतरकर ऊँचे चारित्रधर्मपर आरूढ़ होता है वैसेही, महाराजा भरत महागजसे उतरकर महागिरि पर चढ़े। उत्तर दिशाके द्वारसे उन्होंने समवसरणमें प्रवेश किया। वहाँ आनंदरूप अंकुरको उत्पन्न करनेमें मेघके समान प्रभु उनको दिखाई दिए। भरतने प्रभुको तीन प्रदक्षिणा दे, उनके चरणों में नमस्कार कर, मस्तकपर अंजली रख, इस तरह स्तुति की, "हे प्रभो ! मेरे जैसोंका तुम्हारी स्तुति करना मानो घड़ेसे समुद्रको पीनेका प्रयत्न करना है; तथापि मैं स्तुति करूँगा । कारण,-मैं भक्तिसे निरंकुश हो गया हूँ। हे प्रभो ! दीपके संपर्कसे जैसे वत्ती भी दीपकपनको प्राप्त होती है वैसेही, तुम्हारे आश्रित भविक जन भी तुम्हारेही समान हो जाते हैं। हे स्वामी! मदमत्त बने हुए इंद्रियरूपी हाथियोंको निर्मद वनानेमें औषधरूप और (भूलेभटकोंको) मार्ग बतानेवाला आपका शासन विजयी होता है। हे तीन भुवनके ईश्वर ! आप चार घाति कर्मों का नाश कर बाकीके चार कर्मोंकी उपेक्षा कर रहे हैं। इसका कारण मेरे खयालसे आपकी लोककल्याणकी भावनाही है । हे प्रभो ! जैसे गरुड़के पंखोंमें रहा हुआ पुरुप समुद्रका उल्लंघन करता है वैसेही
आपके चरणोंमें लीन भव्यजन इस संसार-समुद्रको लाँघ जाते हैं। हे नाथ ! अनंतकल्याणरूपी वृक्षको प्रफुल्लित करने में दोहद रूप और विश्वको मोहरूपी महानिद्रासे जगानेवाले प्रातःकालके समान आपके दर्शनका (तत्त्वज्ञानका ) जयजयकार होता है। आपके चरणकमलोंके स्पर्शसे प्राणियोंके कर्मोका नाश हो जाता है। कारण,-चाँदकी कोमल किरणोंसे भी हाथीके दाँत