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५० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग २.
फिर अच्युतेंद्र दस हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिंश देवों, सात सेनाओं, इनके सात सेनापतियों और चालीस हजार आत्मरक्षक देवोंके साथ उत्तरीय वस्त्र धारण कर, प्रभुके पास श्रा, पुष्पांजलि रख, चंदनसे चर्चित और विकसित कमलोंसे आच्छादित मुखवाले एक हजार आठ कुंभ अच्युतेंद्रने उठाए; फिर भक्तिके उत्कर्षसे अपनीही तरह झुकाए हुए मुखवाले कुंभोंसे प्रभुका अभिषेक आरंभ किया। यद्यपि वह जल पवित्र था तथापि सोनेके श्राभूषणोंमें जैसे मणि अधिक प्रकाशित होती है वैसेही, प्रभुके संगसे जल अधिक पवित्र हुआ। जलधाराकी ध्वनिसे कलशोंसे आवाज निकल रही थी; ऐसा जान पड़ता था मानो वे प्रभुकी स्नानविधिमें मंत्रपाठ कर रहे है । कुंभोंमेंसे गिरता हुआ जलका प्रवाह प्रभुकी लावण्यसरितामें मिलकर, त्रिवेणी-संगमकी छटा दिखा रहा था। प्रभुके सोने के समान गोरे अंगमें फैलता हुआ वह पानी, स्वर्णमय हेमवंत पर्वतके कमलखंडमें फैलते हुए गंगाके जलके समान शोभता था। सारे शरीरमें फैलते हुए उस मनोहर और निर्मल जलके द्वारा प्रभु वस्त्र धारण किए हुए हों ऐसे मालूम होते थे। वहाँ भक्तिभावके भारसे आकुल बने हुए देवता-कई स्नान कराते हुए इंद्र और देवोंके हाथसे कुंभ खींच लेते थे, कई प्रभु पर छत्र धरते थे, कई चमर डुलाते थे, कई धूपदान लेकर खड़े थे, कई पुष्पगंध धारण करते थे, कई स्नात्रविधि बोल रहे थे, कई जय जय शब्द कर रहे थे, कई हाथों में डंडे लेकर नगारे वजा रहे थे, कई शंख वजा रहे थे-इससे उनके गाल और मुंह फूल रहे थे, कई काँसेकी ताल (झाँझ) वजा रहे थे, कई अखंडित