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श्री अजितनाथ-चरित्र
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तरहके एक हजार आठ कलश बनाए ( अर्थात सब मिलाकर आठ हजार चौसठ कलश बनाए )। इनके साथही इतनीही भारियाँ, दर्पण, कटोरे, कटोरियाँ, डिच्चे, रत्नकी करडिकाएँ और पुष्पोंकी चगेरियाँ तत्कालही वनाई। ऐमा जान पड़ता था कि ये सब चीजें भंडारमें रखी थीं सो निकाल ली है । वे निरालसी देव, कलश लेकर इसी तरह क्षीरसागरपर गए जिस तरह पनिहारियाँ सरोवरपर जाती हैं। वहाँसे उन्होंने, मानो मंगलशब्द करते हों ऐसे बुदबुद शब्द करते हुए कुंभोंमें क्षीरोदक भरा । इसी तरह पुंडरीक, पद्म, कुमुद, उत्पल, सहस्रपत्र और शतपत्र जातिके कमल भी उन्होंने लिए। वहाँसे वे पुष्करवर समुद्रपर गए । वहाँसे उन्होंने, यात्री द्वीपमेंसे जैसे ग्रहण करते हैं वैसे, पुष्कर (नील कमल ) आदि ग्रहण किए; भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके मगधादि तीर्थोका जल वगैरा ग्रहण किया;
और तपे हुए पथिकोंकी तरह, गंगादिक नदियोंसे तथा पद्मादिक द्रहोंसे उन्होंने मिट्टी, जल और कमल ग्रहण किए। सभी कुल-पर्वतोंसे, सभी वैतात्योंसे, सभी विजयोंसे, सभी वक्षारा (मध्यवर्ती) पर्वतोंसे, देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रोंसे, सुमेरुकी परिधिके भागमें रहे हुए भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पांडुक बनोंसे, इसी तरह मलय, ददुरादि पर्वतोंसे, श्रेष्ठ श्रेष्ठ
औपधियों, गंध, पुष्प और सिद्धार्थादि (सरसों आदि ) ग्रहण किए। वैद्य जैसे दवाएँ जमा करता है और गंधी जैसे सुगंधित पदार्थ एकत्रित करता है वैसेही देवताओंने सभी चीजें जमा की। आदर सहित सभी चीजें लेकर वे इतने वेगसे स्वामीफे पास आए मानो वे अच्युतेंद्र के मनके साथ स्पर्धा कर रहे हैं।
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