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. . . चौथा भव-धनसेठ .
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जाते हैं उनमेंसे अनेकोंके शरीर भिदते हैं,. अनेकोंके अंग छिदते हैं और अनेकोंके मस्तक धड़से जुदा होते हैं। नरकगतिमें अनेक जीव तिलोंकी तरह, परमाधामी देवों द्वारा, घाणोमें पीले जाते हैं, कई लकड़ीकी तरह तीक्षण करौतोंसे चीरे जाते हैं
और कई धनोंसे लोहेके वरतनोंकी तरह कूटे जाते हैं । वे असुर कई जीवोंको सूलीकी सेजपर सुलाते हैं, कइयोंको कपड़ोंकी तरह शिलाओंपर पछाड़ते हैं और कइयोंके शाककी तरह टुकड़े टुकड़े करते हैं, मगर उन सबके शरीर वैक्रियक होते हैं इस लिए तत्कालही मिल जाते हैं। इसलिए परगाधामी फिरसे उनको उसी तरह दुःख देते हैं। ऐसे दुःख झेलते हुए वे करुण स्वरमें रोते हैं। वहाँ पानी माँगनेवालोंको तपाये हुए शीशेका रस पिलाया जाता है और छाया चाहनेवाले जीवोंको असिपत्र (तलवारकी धार जैसे पत्तोंचाले) नामक पेड़ोंके नीचे बिठाया जाता है। अपने पूर्वकर्माको याद करते हुए वे पलभरके लिए दुःखसे रहित नहीं हो सकते। हे वत्से ! (हे वाले !) उन नपुंसकवेदवाले नारकी जीवोंको जो दु.ख होते हैं उनका वर्णन भी श्रादमियोंको कंपा देता है। (५६१-५६६)
"इन नारकी जीवोंकी बात तो दूर रही; मगर सामने दिखाई देनेवाले जलचर, स्थलचर और खेचर तियंच जीवोंको भी पूर्वकमों के उदय से अनेक तरहके दुःख भोगने पड़ते है। जलचरजीवोंमेंसे कइयोंको दूसरे जलचर खाजाते हैं, कइयोंको धीवर पकड़ते हैं और कइयोंको बगुले पकड़कर निगल जाते हैं। चमड़ा चाहनेवाले मनुष्य उनका चमड़ा उधेड़ने है, याने के शौकीन उनको मांसकी तरह भूनते हैं और घरची चाहनेवाले